प्रदीप उपाध्याय
नहीं, आप किसी गलतफहमी में न रहें। मैं अपनी बात स्पष्ट किए देता हूं। वास्तव में आपने जो पढ़ा है वही मैंने लिखा है। आप यह मत समझिए कि मैं लिखना चाह रहा था कि नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूं और गलती से लिखा गया हो कि मोहब्बत करने वालों के सीने में नफ़रत भर दूं। वैसे भी नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भरने वाले पारंगत अब बहुत कम बचे हैं।
आज की तारीख में मोहब्बत का कहीं कोई काम बचा भी नहीं है जो नफ़रत करने वालों को प्यार का पाठ पढ़ाएं और सिखाएं। अब तो दिल का भंवर प्यार का राग नहीं सुनाता है बल्कि उसे नफ़रत के राग में ही रस मिलता है, आनन्द रस! आजकल कंक्रीट के जंगल में लहलहाता चमन भी आंखों को खटकता है। उसकी जगह आर्टिफिशियल हरियाली मन को सुकून देती है। अब विचारों का जन्म दिल से नहीं, दिमाग से जो होने लगा है क्योंकि दिल भावनाओं और संवेदनाओं से परिचालित होता है। भावनाओं एवं संवेदनाओं को कब्रगाह में दफन कर रिश्ते और सम्बन्ध सुकून की नींद सो रहे हैं ताकि वे दिल को परेशान न करें और दिमाग बिना किसी अड़चन ऑपरेशन-नफ़रत पर काम कर सके।
अब प्यार-मोहब्बत का काम ही क्या बचा है। जब पड़ोसी पड़ोसी को नहीं जानता, यहां तक कि आदमी आदमी से अपनी पहचान छुपा रहा है और खो भी रहा है तब प्यार तो मुंह छुपाएगा ही। स्वाभाविक रूप से नफ़रत अपना काम कर रही है और बखूबी कर रही है। चारों ओर धधकते हुए नफ़रत के शोले हैं। आमजन के लिए अग्निपथ लाल कालीन सदृश्य बनाकर बिछा दिया गया है और वह उस पर चल रहा है, सरपट दौड़ रहा है, बेतहाशा भाग रहा है विकल्प की चिंता किए बगैर! उसे कोई दूसरा मार्ग भी तो नहीं दिखाई दे रहा है। नफ़रत की फ़सल उगाई जा रही है, नफ़रत की फ़सल को ख़ूब खाद-पानी दिया जा रहा है। नफ़रत की फ़सल काटी जा रही है और ढेर सारा मुनाफा भी दे रही है। हां, इसकी लागत का मत पूछिए! उत्पादक को लागत से कोई सरोकार भी नहीं है क्योंकि भुगतान तो उपभोक्ता को ही करना होता है।
नफ़रत के गोदाम भरने के लिए मोहब्बत के ठिकानों को खोज-खोजकर खाली करवाने का कष्ट साध्य काम करना पड़ता है। नित नए क्षेत्र खोजकर मोहब्बत की जगह नफ़रत को प्रतिष्ठापित करते जा रहे हैं। ऐसे मोहब्बत के दुश्मन सीना तानकर कंक्रीट का मन लिए आर्टिफिशियल हरियाली फैलाते हुए दहाड़ भी रहे हैं कि मोहब्बत करने वालों के सीने में नफ़रत भर दूं।