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कर्तव्य में एकता सुनिश्चित करती सेना की नैतिकता

हाल ही में पूजास्थल में जाने से इनकार करने वाले अधिकारी को सेवा मुक्त किए जाने का निर्णय बरकरार रखना ऐसे मामलों में भविष्य की दिशा तय करने वाला है। विवाद किसी अनुष्ठान को लेकर नहीं , बल्कि सम्बद्धता, कर्तव्य...
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हाल ही में पूजास्थल में जाने से इनकार करने वाले अधिकारी को सेवा मुक्त किए जाने का निर्णय बरकरार रखना ऐसे मामलों में भविष्य की दिशा तय करने वाला है। विवाद किसी अनुष्ठान को लेकर नहीं , बल्कि सम्बद्धता, कर्तव्य और एक विविधतापूर्ण सेना की संवैधानिक संरचना के बारे में है। यूं भी सेना अपने सैनिकों के लिए आस्था का चयन नहीं करती; यह यकीनी बनाती है कि आस्था एकता में बाधक न बने।

कई बार ऐसे क्षण होते हैं जब अदालत का निर्णय किसी विवाद को निबटाने से अधिक बन जाता है; यह दिशा तय करता है। अपने सैनिकों के साथ रेजिमेंटल पूजास्थल के भीतर जाने से इनकार करने वाले एक अधिकारी को सेवा मुक्त किए जाने के निर्णय को बरकरार रखने वाला सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐसा ही एक क्षण है। यह उस सच्चाई की पुष्टि करता है जो सैनिक सदा जीता है व जिसे लोकतंत्रों को निरंतर मजबूत करना चाहिए : एक गणराज्य अपने संस्थानों के बूते खड़ा होता है और संस्थान अपना प्रण ईमानदारी से निभाने पर खड़े होते हैं।

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सार्वजनिक बहस में, और कुछ टिप्पणियों में, इस मामले को लंबे समय से चली आ रही सैन्य प्रथाओं पर फिर से विचार करने के अवसर के रूप में लेना, इसको गलत अर्थ देना होगा। यह व्याख्या केंद्रीय बिंदु से चूक जाती है। मामला यहां किसी अनुष्ठान पर विवाद को लेकर नहीं है, बल्कि सम्बद्धता, कर्तव्य और एक विविधतापूर्ण सेना की संवैधानिक संरचना के बारे में है।

यह विवाद एक रेजिमेंट में उत्पन्न हुआ, जहां एक मंदिर और गुरुद्वारा साथ-साथ हैं और लंबे समय से एक एकीकृत सर्व धर्म स्थान के रूप में सुचारू हैं। अधिकारी ने यह कहकर अंदर जाने से इनकार कर दिया कि उसकी धार्मिक मान्यता उस पूजा स्थल के गर्भगृह में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देती। समूची सेना में, ऐसे स्थानों को मान्यता की दरकार नहीं है; बल्कि वे तो सह-अस्तित्व को पुष्ट करते हैं। उनका मंतव्य केवल इतना कि विविधता के बीच, सम्बद्धता में दरार न आने पाए। परामर्श-सत्र और एक पादरी द्वारा यह आश्वस्त किए जाने के बाद भी कि पूजा स्थल पर प्रवेश करना उसके धर्म से समझौता नहीं है, वह अधिकारी अपने रुख पर अडिग रहा।

विविधता में एकता का मतलब कभी भी इकाइयों के अंदर रार पैदा करना या किसी आदेश के मनमाफिक मायनों को प्रस्तुत करना नहीं रहा। सेना ने एकता का अर्थ कभी भी संख्या, अनुपात या निर्धारित संरचनाओं के रूप में नहीं लिया। जो कोई भी एक साथ खड़ा है, जहां कहीं से भी वो आता है और जिस भी अनुपात में दिखाई देता है, वह भी एकता है, क्योंकि सामंजस्य कोई गणित नहीं; यह अनुभूत अनुभव है। यही कारण है कि कुछ टिप्पणियों में दिया गया सुझाव कि यह मामला वर्गीय संरचनाओं अथवा रेजिमेंटल प्रथाओं पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करे, पूरी तरह बिंदु से चूक जाता है। सेना के अंदर की एकता बाहरी रूपरेखा से निर्मित नहीं है; यह साझे कर्तव्य, साझे खतरे और उस शपथ से कायम रहती है, जो प्रत्येक सैनिक को दूसरे से जोड़कर रखती है।

एक घटना, चाहे वो कैसी भी दिखाई दे, उसका उपयोग एक संस्थागत संरचना को फिर से खोलने या पुनः व्याख्या करने के लिए नहीं किया जा सकता। कर्तव्य निर्वहन से इंकार को समझना चाहिए, न कि पुनः रूपरेखा के लिए, और जो भी इस नैतिकता विशेष की पुनः व्याख्या में लगते दिखाई दे रहे हैं, निश्चित ही वे इसके वर्ण, वर्णमाला और व्याकरण से अनभिज्ञ हैं। सेना की प्रथाएं युद्ध की वास्तविकताओं, सामंजस्य की दरकार और विविधतापूर्ण इकाइयों द्वारा एकीकृत होकर लड़ने वाले अनुभूत अनुभव से ढाली गई हैं।

कुछ लोग पूछ सकते हैं कि अगर उक्त अधिकारी बहुसंख्यक समुदाय से होता, तब क्या प्रतिक्रिया अलग होती। यह सवाल फौजी वर्दी को गलत तरीके से पढ़ता है। सेना पहचान को अधिमान नहीं देती; दायित्व पर जोर देती है। एकता जनित कर्तव्य का उल्लंघन एक समान है, चाहे वह कोई भी करे। नैतिकता किसी एक या कई के लिए, अल्पसंख्यक से हो या बहुसंख्यक वर्ग से, सबके लिए समान है, क्योंकि जिस घड़ी पहचान में गणित प्रवेश करता है, उसी पल सामंजस्य का निकास हो जाता है। इसलिए यह निर्णय इस बारे नहीं कि अधिकारी कौन था। इस बारे है कि संस्था को कैसी बने रहना चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने उस अधिकारी को सेवामुक्त किए जाने का फैसला बरकरार रखा, इसलिए नहीं कि यहां उसकी ईमानदारी पर शक है, बल्कि इसलिए कि उसका मानना है कि सशस्त्र पेशे में धार्मिक मान्यता को कर्तव्य से ऊपर नहीं रखा जा सकता। यहां निजी व्याख्या से रेजिमेंटल वैध प्रथा को अलग करके लिया जा रहा था। वह भी एक ऐसे बल में जहां परिचालन में एकता पर समझौता नहीं हो सकता, यह कृत्य अनुशासनहीनता का है। सेना ने अपने शासनादेश के भीतर रहकर काम किया; अदालत ने इसे बरकरार रखा क्योंकि यह निष्पक्ष -निर्भय होकर काम करने वाले बल की रीढ़ संवैधानिक रूप से मजबूत करता है। यह समझने को कि विश्वास को कर्तव्य से ऊपर क्यों नहीं रखा जा सकता, उसे सैनिक बनने के व्याकरण को पुनः पढ़ना होगा। थलीय युद्ध का ढंग कभी नहीं बदलता : हाथ से हाथ, संगीन से संगीन, आदमी से आदमी, टैंक से टैंक। आमने-सामने के युद्ध में दरार की कोई गुंजाइश नहीं बचती। विभिन्न हथियारों और सेवाओं वाली सेना में विविधता वर्णमाला है। व्याकरण है आक्रमण, बेदखली, कब्जा और पकड़, थलीय युद्ध का निष्ठुर वाक्यविन्यास जिसे अटूट सामंजस्य की दरकार है। अक्षर, वर्णमाला और व्याकरण के बीच, स्थिरांक है व्यक्ति : उसकी सहज प्रवृत्ति, प्रेरणा व उसकी चिरस्थायी संहिता...नाम, नमक, निशान।

विविधता में एकता एक आकांक्षा नहीं; परिचालन की जरूरत है। सैन्य इकाई चाहे सर्व-वर्गीय हो, मिश्रित वर्ग की हो या निर्धारित वर्ग की, अधिकारी स्तरीय नेतृत्व हमेशा मिश्रित रहा है। इस तंत्र के वास्ते सर्वधर्म स्थल होते हैं। यह कोई अनुष्ठान नहीं; यह तो स्वतंत्रता उपरांत एक संस्थागत नीति है जो तय करती है कि हरेक सैनिक अपने साथियों संग खड़ा हो सके, भले वे समान रूप से पूजा न करें। यह सेना का एकता बनाने का अपना देसी व्याकरण है।

यह निर्णय मायने रखता है क्योंकि सेना गणतंत्र में संवैधानिक नागरिकता का सबसे अधिक दिखाई देने वाला संस्थान है। यह वह जगह है जहां प्रत्येक फौजी टुकड़ी की पंक्ति में विभिन्न भाषा, क्षेत्र, जाति और पंथ दिखाई देते हैं, फिर भी किसी के लिए विशेषाधिकार या प्राथमिकता निर्धारित नहीं। सेना की नैतिकता मतभेद मिटाना नहीं, बल्कि मतभेदों को अलगाव बनाने से रोकना है। यह लाखों पहचानों को, दूसरे की कीमत पर, खुद को हावी किए बिना, एक वर्दी पहनने की अनुमति देती है।

यह नैतिकता सजावटी नहीं। यह अनुशासन, विश्वास और परिचालन एकता की नींव है। जो क्षण सामूहिक पहचान का प्रतीक बन जाता हो, वहां एक सेनापति अपने सैनिकों से अलग खड़ा नहीं हो सकता। यदि कोई निजी पसंद के जरिये संस्थागत प्रथा की पुनः व्याख्या करने लगे तो कोई इकाई एकजुट नहीं रह पाएगी। अदालत ने माना, ऐसा रास्ता एक धर्मनिरपेक्ष, अराजनैतिक बल को कमजोर कर देगा। सेना की धर्मनिरपेक्षता यह सुनिश्चित कर सबके हकों की रक्षा करती है कि कोई भी श्रेष्ठता स्थापित न करे। यहां सेना के लिए भी ताकीद है। केवल परंपरा से सामंजस्य की गारंटी नहीं। प्रत्येक बार जब शपथ को व्याख्या से ऊपर रखा जाता है, सामूहिक नैतिकता को बिना हिचकिचाहट बरकरार रखा जाता है, तो इसका नवीनीकरण हो जाता है। सेना अपने सैनिकों के लिए आस्था का चयन नहीं करती; यह यकीनी बनाती है कि आस्था केंद्र भावना में दरार न डाले।

ऐसे युग में जब समाज अपना संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जब शोर सूक्ष्मता पर हावी है और पहचान सहानुभूति से आगे निकल चुकी है, भारतीय सेना की नैतिकता एक राष्ट्रीय स्थिरांक बन जाती है। दर्शाती है कि सह-अस्तित्व कोई आदर्श न होकर, एक रुटीन है। यह दर्शाती है कि पदानुक्रम के इतर असहमति बनी रह सकती है और साझा उद्देश्य अंदरूनी मतांतर रेखाओं से ऊपर हैं।

सेना के फैसले को बरकरार रखते हुए, सुप्रीमकोर्ट ने ऐसे सिद्धांत को मजबूत किया जिसने भारत को युद्धों, उथल-पुथल और अनिश्चितता के बीच से निकाला है। वह धुरी जो इसे कायम रखे है। यह उस प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठा से बनी है जो दस लाख सैनिकों को एक सूत्र में पिरोए है। जब उस प्रण को बरकरार रखा जाता है, तो गणतंत्र स्थिर रहेगा, फौजी संस्था इस पर स्पष्ट खड़ी दिखाई देती है, और हर पद के लिए सुस्पष्ट संदेश सदा है : कर्तव्य में एकता से कोई समझौता नहीं।

लेखक सेना की पश्चिमी कमान के पूर्व कमांडर एवं पुणे इंटरनेशनल सेंटर के संस्थापक ट्रस्टी हैं।

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