उन्नीस फरवरी, 1998 को, जिस दिन भारत-पाक रिश्तों में नया अध्याय जोड़ने की आस से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लाहौर जाने वाली बस में सवार होने में कुछ घंटे बाकी थे, आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के राजौरी और पड़ोसी जिले रियासी में 20 लोंगो की हत्या कर डाली। इस नरसंहार के पीछे आतंकवादियों का प्रयोजन था एक तो घरेलू राजनीति में प्रधानमंत्री का कद घटाना और दूसरा भारत-पाक शांति प्रक्रिया को पलीता लगाना।
हालांकि गत 1 जनवरी को आतंकवादियों द्वारा राजौरी जिले के डांगरी गांव में पुनः 6 लोगों की नृशंस हत्या करने के पीछे कोई बड़ा मनोरथ या साजिश सफल होती दिखाई नहीं दे रही किंतु इस हत्याकांड ने पीर पांजाल के दक्षिणी इलाके में, जो कि जम्मू और कश्मीर घाटी को भौगोलिक रूप से जुदा करता है, इतने ही जघन्य और रक्त-रंजित हमलों की यादें पुनः ताजा कर डाली हैं।
भौगोलिक और जातीय दृष्टि से कश्मीर का पहाड़ी इलाका राजौरी-पुंछ और वास्तविक सीमा नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान वाला खित्ता बिल्कुल एक जैसा है। यह क्षेत्र 1990 के दशक के मध्य तक कश्मीर घाटी में चले आ रहे आतंकवाद के प्रभाव से ज्यादातर अप्रभावित रहा था। कारण एकदम साफ था कि इस अंदरूनी इलाके में आतंकवादियों ने अपनी गतिविधियां कम ही रखी थीं। राजौरी-पुंछ की पीर पांजाल पर्वतमाला के ऊंचे और घने जंगल से आच्छादित पहाड़ चरमपंथियों के लिए नैसर्गिक पनाहगार हैं और सीमा से घुसपैठ के बाद दक्षिण कश्मीर पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता भी यहीं से है।
लेकिन हालात तब से बदलने लगे जब सुरक्षा बलों ने समस्या की जड़ पर चोट करने के लिए आंतरिक क्षेत्रों में भी अभियान करने के प्रयास शुरू किए। वर्ष 1997 के सितम्बर माह में आतंकवादियों ने राजौरी जिले के थाना मंडी क्षेत्र की ऊंची रत्न पीर पहाड़ी पर सीधे कब्जा करके, मोर्टारों से रॉकेट दागकर सेना की चौकियों पर हमले किए थे। इन्हें खदेड़ने को सेना को 1 हफ्ता लगा था। धार्मिक तौर पर ध्रुवीकृत हो चुके समुदायों वाले डोडा, भद्रेवाह और किश्तवाड़ में होने वाली हत्याएं एक समुदाय विशेष के सदस्यों की ज्यादा होती हैं वही राजौरी-पुंछ पट्टी में यह सुस्पष्ट नहीं है।
राजौरी-पुंछ में हुए आतंकवादियों के हमलों में सभी धर्मों और समुदायों को नुकसान हुआ है। वर्ष 1 जुलाई, 1999 को चरमपंथियों ने पुंछ जिले के हिंदू बहुल मेंढर में 9 लोगों को मार डाला था। इस कांड में आतंकवादियों ने एक अंतर-संप्रदाय विवाह पर स्थानीय रूढि़वादी समुदाय की भड़की भावनाओं का दोहन किया था। इससे पहले, 24 सितम्बर, 1997 को राजौरी के बुढल में 8 हिंदुओं की हत्या की गई थी। इन हत्याकांडों ने हिंदुओं की पहाड़ी इलाकों से पलायन करके राजौरी के शहरी क्षेत्र में बसने की शुरुआत की थी।
लेकिन मुस्लिम समुदाय को भी बराबर का भुगतना पड़ा है। पुंछ में आतंकवाद से संबंधित पहली बड़ी घटना सूरनकोट इलाके के सैलान में एक ही परिवार के 20 सदस्यों की हत्या थी। इस घटना का सीधा संबंध चरमपंथियों का आपसी बदला लेने से था। दरअसल, 3 अगस्त, 1998 को एक गुट ने अपने विरोधियों में, एक खास कबीले से संबंधित आतंकवादी को मार डाला था। इस हत्याकांड में एकमात्र बच निकलने वाला व्यक्ति मोहम्मद शबीर शेख था, जो उस वक्त किशोर था। उसने लेखक को बताया कि वह इसलिए बच पाया क्योंकि उस वक्त नैसर्गिक-निवृत्ति के लिए घर से बाहर था। अपने पारिवारिक सदस्यों को मरते देख वह पास की झाड़ियों में छिप गया था। शेख ने मुझे बताया कि इस नरसंहार के लगभग 2 साल पूरे होने के बाद आतंकवादियों के एक गुट ने उससे संपर्क कर अपने दल में शामिल होने का पेशकश की थी ताकि ‘बदला ले सके’। 1990 के दशक के अंतिम सालों में आतंकवादी गुटों में युवाओं की भर्ती होने की एक बड़ी वजह असुरक्षा और बदलाखोरी की भावना थी।
राजौरी-पुंछ पट्टी क्षेत्र में चरमपंथियों का सामना करके आतंकवाद को करारी चोट पहंुचाने वाले स्थानीय अनजाने नायकों में एक थे दिवंगत हाजी मोहम्मद कासिम। उन्होंने और उनके साथियों ने सूरनकोट के मर्राह में वर्ष 2003 के आखिरी महीनों में लश्कर-ए-तैय्यबा के आतंकवादियों के खिलाफ खुली लड़ाई लड़ी थी। काफी अंदरूनी और पहुंचने में दुरूह इस इलाके पर एक तरह से आतंकवादियों का राज चलता था। सऊदी अरब में अपने मुनाफादायक संगमरमर के धंधे को बंद करके वतन वापसी करने वाले हाजी मोहम्मद और उनके साथियों ने लश्कर के आतंकवादियों के खिलाफ खड़े होने के लिए स्थानीय लोगों को लामबंद किया। सुरक्षा बलों से मिले हथियार चलाने के प्रशिक्षण के बलबूते यह लोग अपने इलाके से आतंकवादियों को खदेड़ने में सफल रहे। बेशक उनके कुनबे के कुछ लोगों की आतंकवादियों द्वारा बदला लेने के लिए हत्याएं भी हुईं, लेकिन वे डटे रहे। उनके गांव में मेरा कई बार जाना हुआ था, कुछ साल पहले, अपनी मृत्यु से पहले, ऐसी एक फेरी में, मुझे बताया था कि उनका पूरा समुदाय आतंकवादियों के फरमानों से बहुत तंग था और उनके सामने डटकर खड़े होने के लिए केवल चिंगारी की जरूरत थी।
इस क्षेत्र में हिंसा के पिछले तीन दशक कुछ खास सबक देते हैं। पहला, राजौरी-पुंछ इलाके की हालिया घटनाएं, जिसमें 11 अगस्त, 2022 को हुआ आत्मघाती हमला भी शामिल है, स्थानीय माहौल को और अधिक समझने की जरूरत को दर्शाता है। कश्मीर घाटी में, कश्मीरी बोलने वालों में बाहर से आए पंजाबी भाषी घुसपैठिए आतंकी की शिनाख्त करना आसान है एवं 1947, 1965 और यहां तक कि पिछले तीस सालों का अनुभव यही बताता है। लेकिन पीर पांजाल पर्वत शृंखला के दक्षिण में स्थित इस क्षेत्र में किसी घुसपैठिए पंजाबी भाषी आतंकी को स्थानीय लोगों से अलग पहचानना मुश्किल है क्योंकि बोली-आदतें मिलती-जुलती हैं।
दूसरा सबक, 740 किमी लंबी वास्तविक नियंत्रण सीमा रेखा और 140 किमी लंबी अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर की गई तारबंदी की मौजूदा प्रभावशीलता की ईमानदार पुनर्समीक्षा करने की जरूरत है। राजौरी हत्याकांड से कुछ ही दिन पहले, 28 दिसम्बर, 2021 को जम्मू-श्रीनगर उच्चमार्ग पर एक ट्रक की औचक चैकिंग में उसमें छिपकर जा रहे चार आतंकवादी मारे गए थे। शायद भगोड़े चालक ने आतंकवादियों को उस जगह से उठाया था, जब वे भारत-पाक सीमा के मैदानी भाग से घुसपैठ करके दाखिल हुए थे। पुलिस तफ्तीश में एक और वाक्या प्रकाश में आया, जब 24 अप्रैल, 2022 को जम्मू-कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी की रैली में उन्हें निशाना बनाने की योजना विफल की गई। पुलिस के मुताबिक, एक ट्रक चालक ने साम्बा सेक्टर से सीमा पार करके भारत में घुसे दो आतंकवादियों को गंतव्य तक पहुंचाया था और एक स्थानीय बंदे ने पनाह दी थी। घटनाएं बताती हैं कि आतंकवादी घुसपैठ करने में सफल रहते हैं।
इस सब के आलोक में, नाकों पर ऐसी मशीनें तैनात करने की जरूरत है जो जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय उच्चमार्ग पर चलने वाले ट्रकों की स्कैनिंग, इंसानी खोजबीन की जरूरत के बिना, करने में सक्षम हों। आतंकवादियों द्वारा इस्तेमाल एक तरीका है, ट्रकों में बने गुप्त प्रकोष्ठ में छिपकर यात्रा करना। केवल कुछ ट्रकों की चैकिंग वाली प्रणाली से आतंकवादियों की धरपकड़ की संभावना बहुत कम रहती है और फिर इस किस्म की खोजबीन में सुरक्षा सैनिकों की अपनी जान को खतरा बहुत रहता है।
तीसरा सबक, आतंकरोधी तंत्र को सुदृढ़ करने के अलावा, राजौरी-पुंछ इलाके में आतंकवाद के विरुद्ध संयुक्त सामाजिक मुहिम में विभिन्न समुदायों, जातियों और धर्मों से संबंधित राजनीतिक वर्ग और सिविल सोसायटी की भागीदारी बनाना मुख्य उत्प्रेरक का काम करेगी। हालिया घटनाक्रम के मद्देनजर, आतंक-रोधी व्यवस्था की विस्तृत समीक्षा करने की जरूरत है जिसमें नई हकीकतों का संज्ञान लेने के अलावा जम्मू-कश्मीर में पिछले तीन दशकों में प्राप्त आतंकरोधी अनुभवों का समावेश हो।
लेखक पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।