इंद्रजीत सिंह
पशुपालन स्वाभाविक रूप से कृषि का ही एक सहायक व अभिन्न पेशा बना रहा है। ग्रामीण रोजगार प्रदान करने और परिवारों की आय के मामले में पशुधन का विशेष योगदान रहा है। गाय-भैंसों की नई विकसित नस्लों और नई तकनीकों की बदौलत हरियाणा, पंजाब व अन्य प्रदेशों ने दूध उत्पादन में भारी वृद्धि की। उत्पादन की दृष्टि से प्रति व्यक्ति दूध की औसत उपलब्धता हरियाणा और पंजाब में अब एक लीटर से अधिक बैठती है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे, मझोले काश्तकार किसानों के अलावा भूमिहीन तबका और खेत मजदूर भी गुजारे के लिए पशुपालन पर निर्भर हैं। पशुपालन और दूध उत्पादन में सभी समुदायों की ग्रामीण महिलाओं की विशेष भूमिका है यद्यपि निर्णय लेने के मामले में काफी हद तक उनकी उपेक्षा होती आई है। फसलों की लागत बढ़ने के अनुरूप आय का न बढ़ना और प्राकृतिक आपदा से बार-बार फसल खराब होने आदि कारणों से भी हाल के दशकों में पशुपालन की ओर किसानों का झुकाव बढ़ा है। पर पशुपालक के समक्ष जो संकट खड़ा हो रहा है उसकी मुख्य वजह सत्ताधीशों द्वारा जनहित के एजेंडा को ही छोड़ देना है। ग्रामीणों का एक हिस्सा संकट के कारण पशु पालन को छोड़ने पर भी मजबूर है।
उदारीकरण के परिणाम स्वरूप आज भारत व हरियाणा का डेयरी क्षेत्र गंभीर संकट से ग्रस्त है। इस संकट को कृषि के अभूतपूर्व संकट के साथ ही जोड़ कर देखना चाहिए जिसकी परिणति किसान आंदोलन के रूप में हुई है। कार्पोरेट हितों के अनुरूप स्थिति डेयरी क्षेत्र की भी बनाई जा रही है।
सन् 1970 में डॉ. वर्गीज कूरियन द्वारा चलाए ‘आपरेशन फ्लड’ के नाम से लोकप्रिय मॉडल ने जो चमत्कारिक परिणाम दिए वह सहकारिता पर ही आधारित था। उत्पादन-मैन्युफैक्चर-मार्केटिंग की प्रणाली से दुग्ध उत्पादन क्षेत्र को पशु पालकों की समावेशी हिस्सेदारी से ही विकसित होना था। सत्तर के दशक के बाद हरियाणा व पंजाब में भी कोऑपरेटिव सेक्टर में चिलिंग सेंटर और मिल्क प्लांट आदि खोले गए परंतु ये पनप नहीं सके। यदि सहकारिता प्रणाली को प्रोत्साहित किया जाता तो उत्पादक और उपभोक्ता दोनों के हित संरक्षित होते।
ग्रामीण परिवेश के सशक्तिकरण का स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता वाला रास्ता त्यागकर शासक वर्ग ने 90 के दशक की शुरुआत में नव उदारीकरण की नीतियों की शुरुआत करते हुए अपनी जनकल्याणकारी भूमिका से हाथ खींच लिया। सब्सिडियों में भारी कटौती कर दी। समय के साथ कई मिल्क प्लांट बंद कर दिए गए, जो बचे उनका विस्तार नहीं किया। ऐसे में देशी-विदेशी निजी कंपनियां इस क्षेत्र में अपनी पैठ जमाने आ गईं।
गौचरान और शामलात भूमि गांवों में बहुत कम रह गई है। जगह की कमी के चलते भूमिहीन परिवारों के लिए तो पशु रखना और भी मुश्किल हो गया है। पशुओं को पालने व दूध उत्पादन के लागत खर्चों में हाल में भारी वृद्धि हुई है जबकि इसके अनुरूप दूध के भाव नहीं बढ़े हैं। वहीं उपभोक्ताओं को सस्ता दूध उपलब्ध हो रहा हो ऐसा भी नहीं है।
विचारणीय है कि गाय के मुकाबले दूध महंगा होने और मुर्रा भैंस की बेहतर नस्ल के बावजूद भैंसों की संख्या हरियाणा में घट रही है। हरियाणा में 2012 में हुई गणना में भैंसों की कुल संख्या 57.64 लाख थी जो कि 2019 में 43.76 लाख पर आ गई। जबकि गायों की संख्या इसी दौरान कुछ बढ़ कर 18 लाख से 19.32 लाख हो गई। भैंस पालन गाय की तुलना में महंगा होना भी कारण हो सकता है।
कृषि में बैल का प्रयोग तो लगभग समाप्त है। परंतु अनुपयोगी गाय व सांडों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। आवारा पशु बढ़ रहे हैं जो फसलों की बर्बादी और दुर्घटनाओं के चलते समस्या बने हुए हैं। अवांछनीय पशुओं के प्रजनन पर नियंत्रण की तकनीकें अपनाने की जरूरत है। वहीं कुछ नये बनाये कानूनों से पशुओं का व्यापार चौपट हो रहा है। ऊपर से पशु मेले बंद कर दिए गए।
डेयरी उत्पादों का आयात खोले जाने से विकसित देशों से डेयरी उत्पादों का आना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। भारत में डेयरी उत्पादों के आयात पर लगे प्रतिबंध काफी हद तक समाप्त किए जा चुके हैं और आयात शुल्कों को लगभग खत्म कर दिया गया। न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, डेनमार्क आदि देशों से हाल में भी समझौता वार्ताओं के दौर चल रहे हैं। विकसित देश दबाव बना रहे हैं कि डेयरी उत्पादों का आयात पूरी तरह खोल दिया जाए। मोटी सब्सिडी और अति आधुनिक तकनीकों पर टिके इन देशों के डेयरी उत्पाद भारी मात्रा में हमारे देश के बाजारों में झोंक दिए जाएंगे। उन सस्ते उत्पादों के सामने हमारे देश के डेयरी उत्पाद पिट जाएंगे। भारत सरकार को भारतीय पशु पालक किसानों को उजड़ने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दृढ़ता से पेश आना होगा। डेयरी सेक्टर को बचाने के लिए वैकल्पिक नीतियों के पक्ष में पशुपालकों और उपभोक्ताओं का संगठित होना जरूरी है। दरअसल, अन्य नीतिगत बदलावों के अलावा वास्तविक को-ऑपरेटिव प्रणाली के माध्यम से ही कार्पोरेट का मुकाबला किया जा सकता है।