मंगलवार को हुई प्रेस कान्फ्रेंस में राहुल गांधी के आक्रामक तेवर यही इशारा कर रहे हैं कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की कमान एक बार फिर यही पुराने अध्यक्ष संभालने जा रहे हैं। बेशक राहुल के इस्तीफे के बाद कांग्रेस की कमान संभालने वाली सोनिया गांधी भी पूर्व अध्यक्ष ही हैं, लेकिन बीच में इन चर्चाओं ने जोर पकड़ा था कि शायद कांग्रेस नेहरू परिवार से बाहर नेतृत्व की तलाश करे। हालांकि नेतृत्व के प्रश्न पर सोनिया या राहुल ने अभी तक स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन घटनाक्रम के इशारे वही संकेत दे रहे हैं, जो कांग्रेस के मीडिया विभाग के राष्ट्रीय प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला कह चुके हैं कि राहुल गांधी ही पार्टी के नये अध्यक्ष होंगे। बेशक राजनीतिक दल निजी कंपनी की तरह नहीं चलाये जाने चाहिए, पर सच तो यही है कि कमोबेश सभी दलों में नेतृत्व संबंधी फैसले परदे के पीछे चंद लोग ही करते हैं। हां, बाद में उस पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मुहर लगाने की औपचारिकता अवश्य निभा दी जाती है।
देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भूमिका रही। उस समय के कांग्रेस के कद्दावर नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी बन सकती है, लेकिन एक बार नेहरू परिवार के दायरे में सिमट जाने के बाद वहां जनाधार वाले नेता न तो टिक पाये और न ही पनप पाये। बेशक इस बीच इंदिरा गांधी ने कांग्रेस विभाजन के बावजूद प्रचंड बहुमत हासिल कर तथा 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की शर्मनाक पराजय एवं विभाजन से बंगलादेश के रूप में एक नये देश के उदय से अपना करिश्माई नेतृत्व साबित किया, लेकिन उसके बाद तो कांग्रेस और भी नेता विशेष– परिवार विशेष के दायरे में सिमट गयी। परिणामस्वरूप कांग्रेस में जनाधार वाले स्वाभिमानी नेताओं के बजाय दरबारी संस्कृति में पारंगत जी हुजूर ही ज्यादा रह गये। कहना नहीं होगा कि अंतत: यही दरबारी संस्कृति कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति बन गयी। राजीव गांधी ने जब कांग्रेस को सत्ता के दलालों से मुक्त कराने की बात कही थी तो लगा था कि राजनीतिक अनुभव की कमी के बावजूद इस युवा को अपनी पार्टी की विकृतियों का अहसास है, लेकिन इतिहास गवाह है कि वह इनका निदान कर पाने के बजाय खुद उसी संस्कृति के बंधक बन कर रह गये। शायद दरबारी संस्कृति का शिकंजा इतना मजबूत था कि उसने नेता तक को उससे नहीं निकलने दिया। दरअसल पहले सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी को दरबारी संस्कृति में जकड़ी वही कांग्रेस मिली। सच यही है कि इंदिरा गांधी के अंतिम वर्षों से ही कांग्रेस एक राजनीतिक दल से सत्ता तंत्र में तब्दील होती गयी है। जब तक देश की राजनीति परंपरागत ढर्रे पर चलती रही, कांग्रेस की यथास्थितिवादी रीति-नीति अपनी गति से चलती रही, लेकिन पिछले दो दशकों में हालात बदले हैं। गिनती के लिए देश में चाहे जितनी बार भी गैर कांग्रेसी सरकारें बनी हों, पर चरित्र और वैकल्पिक सोच की दृष्टि से देखें तो ऐसा पहला परिवर्तन 1977 में हुआ और दूसरा 1998 में। आपातकाल के बाद 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार भले ही अपने दिग्गजों के बीच अहं और सत्ता महत्वाकांक्षाओं के टकराव की भेंट चढ़ गयी हो, पर उसके अल्प कार्यकाल में भी लिये गये जनहितकारी फैसले मिसाल हैं।
दूसरा परिवर्तन थोड़ा ज्यादा चला। हालांकि 1996 में तेरह दिनों में विदा हो गयी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार 1998 में लगभग 13 महीने चली, लेकिन उसके बाद उसे दूसरा कार्यकाल भी मिला। उस सत्ता परिवर्तन में भी लोगों को व्यवस्था परिवर्तन का अहसास हुआ। यह अलग बात है कि अपने सिपहसालारों के इंडिया शाइनिंग जुमलों में फंस कर वाजपेयी जी समय से चंद महीने पहले ही लोकसभा चुनाव करा बैठे। इंडिया शाइनिंग की हकीकत अपेक्षाकृत नौसिखिया राजनेता सोनिया गांधी द्वारा बिछायी गयी बिसात पर कांग्रेस नीत संप्रग के केंद्र में सत्तारूढ़ होने के रूप में सामने आयी। सोनिया ने सरकार की कमान नहीं संभाली और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया, लेकिन सच यही है कि सरकार उनके ही साये में चली और यथास्थितिवादी राह पर भी। पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री जिन आर्थिक सुधारों का श्रीगणेश किया था, अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्हें भरपूर गति भी दी। इसके बावजूद संप्रग सरकार जन आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, यह वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम से साबित हो गया, जब तीन दशक के अंतराल के बाद किसी अकेले दल के रूप में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और कांग्रेस महज 44 सीटों पर सिमट गयी। बेशक सरकार भाजपा ने राजग के घटक दलों के साथ मिल कर ही बनायी।
नरेंद्र मोदी के पहले प्रधानमंत्रित्व काल को लेकर राजनीतिक प्रेक्षकों और आर्थिक जानकारों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पहले से भी अधिक सीटों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि तमाम किंतु-परंतु के बावजूद मोदी की साख बरकरार रही तो कांग्रेस अपनी खोयी साख पाने में नाकाम। कांग्रेस इस बार 52 सीटों तक ही पहुंच पायी। तभी चौतरफा आलोचनाओं के बीच हताश राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर नेहरू परिवार के बाहर से अध्यक्ष चुनने की नसीहत दी थी। यह इतना आसान नहीं था। इसलिए भी दरबारियों ने फिर से सोनिया गांधी को ही, अंतरिम अध्यक्ष के रूप में, कमान सौंप दी। तब से लगभग डेढ़ साल गुजर गया। कांग्रेस के सुधारकों ने सोनिया को सामूहिक नेतृत्व और आंतरिक लोकतंत्र के लिए पत्र भी लिखा, राहुल की वापस ताजपोशी का कोरस भी बीच-बीच में गूंजता रहा, पर कांग्रेस जहां की तहां बनी रही। हां, इस बीच वह अपनी मध्य प्रदेश सरकार भी भाजपा के हाथ गंवा बैठी, जो उन तीन राज्यों में से एक है, जहां राहुल के अध्यक्ष काल में कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीनी थी।
पिछले साल के आखिर में ही संकेत मिलने लगे थे कि पुराने अध्यक्ष राहुल गांधी ही कांग्रेस के नये अध्यक्ष भी होंगे। मंगलवार को राहुल ने जिस आक्रामक अंदाज में मोदी सरकार पर हमला बोला है, उससे भी यही संकेत मिलता है कि वह पुन: कांग्रेस की कमान संभालने को तैयार हो गये हैं। शायद मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए यही बेहतर भी हो, पर क्या इससे कांग्रेस की दशा-दिशा बदल पायेगी? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कांग्रेस लंबे समय तक जस की तस नहीं रह पायेगी। कांग्रेस को खुद को नये सिरे से परिभाषित करते हुए मौजूदा राजनीति में अपनी प्रासंगिकता साबित करनी होगी, वरना वह इतिहास में दर्ज होकर रह जायेगी। 1984 की दो सीटों से 2014 में 282 और फिर 2019 में 303 सीटों तक पहुंच कर भाजपा ने साबित कर दिया है कि राजनीति असीमित संभावनाओं का खेल है, पर क्या वैसा खेल खेलने का माद्दा कांग्रेस और उसके नेतृत्व में है? यह सवाल इसलिए अहम् है, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रदेश और स्थानीय स्तर तक कांग्रेस न सिर्फ बुरी तरह विभाजित है, बल्कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की शिकार भी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के चलते मध्य प्रदेश में कांग्रेस अपनी सरकार गंवा चुकी है। पिछले साल कोरोना काल में ही अंतिम क्षणों में सचिन पायलट को मनाकर राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार तो कांग्रेस ने बचा ली, पर इन दोनों दिग्गजों के बीच छत्तीस का आंकड़ा बरकरार है। स्थिति कब विस्फोटक हो जाये, नहीं कहा जा सकता। किसान आंदोलन के चलते पंजाब में सब कुछ ठीक लग सकता है, लेकिन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह विरोधी गुट की यह खामोशी स्थायी नहीं है। हरियाणा में कितने गुट हैं, आलाकमान को भी यह गिनना पड़ेगा। अन्य राज्यों के हालात भी ज्यादा जुदा नहीं हैं। ऐसे में सिर्फ मोदी सरकार के विरुद्ध राहुल गांधी की आक्रामकता से कांग्रेस की मुश्किलें कम नहीं हो जायेंगी। दरअसल वर्ष 2019 में अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से ही राहुल लगातार आक्रामक होते गये हैं, पर उससे कांग्रेस की दशा-दिशा नहीं सुधरी। विपक्ष के नेता के नाते सरकार के विरुद्ध आक्रामकता में रणनीतिक रूप से कुछ भी गलत नहीं है, पर राहुल को यह समझना होगा कि ठोस वास्तविक तथ्यों पर आधारित आक्रामकता ही कारगर होती है, और वह भी तब, जब आपके दल में उसका पूरा लाभ उठाने की सामर्थ्य हो, वरना तो वह आत्मघाती भी साबित हो सकती है।
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