मदन गुप्ता सपाटू
तीसरी लहर के डर से गांव के कुछ युवा कार्यकर्ताओं ने वैक्सीन लगवाने के लिए एक कैंप लगवा दिया। लालू गले में लाउड स्पीकर लटकाए चिल्ला-चिल्लाकर मुनादी करने लगा— वैक्सीन लगवा लो वैक्सीन। मुफ्त में लगवा लो वैक्सीन। गांव के सभी लोग लाइन लगाकर रंग-बिरंगी ड्रेस पहने ऐसे निकल पड़े जैसे वोट देने निकलते हैं। लेकिन भूरी ताई अपने स्टैंड पर अड़ी रही। न कभी वोट देने गई न टीकाकरण के लिए तैयार हुई। गांव के छोरे जो आते-जाते ताई से चुहलबाजी करते थे। ताई अपनी रौबीली आवाज में चिल्लाई— ‘रे छोरो! मैं नब्बे उप्पर पांच होली, थारे से भी जयादा तगड़ी हूं। इब तक एक भी सूई न लगवाई। मन्ने कोई जरूरत नी टीके-फीके की। आज तक बुखार कदी आया मन्ने? और मन्ने गांव का चौधरी कुछ न कह सके तो ये कोरोना कया कर लेवेगा? करोना शरोना सहरों में आवे जावे, म्हारे गांव में मेरे कहे बगैर, पत्ता तक न हिले, यो कैसे आ सके है? जब राम जी बुलाएंगे तो थारा ताऊ भी न रोक सके। पिछले महीने, राम प्यारी, राम को प्यारी होली। बिन बुलाए तो भगवान के घर न जावै कोई।’
कुछ लोग उदाहरण देने लगे—ताई! देख, प्रधानमंत्री की मां 100 बरस की है। उसने भी टीका लगवा लिया है। इब वो और चालेगी। ताई इस बात पर कंपीटिशन की खतिर कन्विंस हो गई। बहुओं ने ताई को रंग-बिरंगी साड़ी पहनाई, ओढ़नी ओढ़ाई, माथे पर चांदी का बिन्दा लटकाया और एक उत्सव का वातावरण बनाकर किसी तरह कैंप में तोर दी।
खैर! जब ताई लौटी तो सारे गांव वाले एक घेरा बनाकर ताई के चारों तरफ खड़े हो गए। कुछ नौजवान छोरे लोकल प्रेस कॉन्फ्रेंसनुमा माहौल बनाकर ताई से चुहलबाजी करने लगे—ताई कैसा लाग्या? दर्द तो नईं होई कोई? कौन-सी वैक्सीन लगवाई?
ताई ने पूरे काॅन्फिडेंस से जवाब दिए—दर्द कोई न होई। लाग्या चींटी काट री सै। इब्ब मन्ने कया बेरा कौन से रंग का टीका लाग्या। मैं तो थारे ताऊ को ताकरी थी।
जब पिछले साल वैक्सीन नहीं आई थी, लोग गब्बर की तरह आसमान की तरफ गर्दन उठा-उठाकर सरकार से पूछते थे—कब आएगी वैक्सीन? अभी तक आई नहीं वैक्सीन? जब आ गई तो बरबाद हो गई। लोग गाने लगे—ये तेरी वैक्सीन… ये मेरी वैक्सीन। ये भाजपा की वैक्सीन। मैं नहीं लगवाउंगा। ये विदेशी है। मुझे स्वदेशी चाहिए। किसी को रशियन चाहिए। मैं तो स्टेनलेस स्टील का बना हंू। मैं क्यों लगवाऊं वैक्सीन? अब तीसरी लहर का खौफ सताने लगा तो हर जगह ठेलमठेल। पहले मैं… पहले मैं… कहते हुए एक-दूसरे पर चढ़े जा रहे हैं।
वैक्सीन अरेंज्ड मैरिज की तरह हो गई। पहले आप अच्छी नौकरी और स्टेटस के चक्कर में घोड़ी या डोली चढ़ने को तैयार नहीं होते। फिर आपको उनमें से कोई पसंद नहीं आती है। जिन्हें मिल जाती है, वे पछताते रहते हैं कि कुछ दिन रुक जाते तो शायद इससे भी अच्छी मिल जाती। जिन्हें नहीं मिलती, वे आखिर में कहते हैं कोई भी चलेगी।