दुनिया का ध्यान अब अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज के पलायन के बाद उत्पन्न होने वाली अनिश्चितता और भ्रम पर केंद्रित है। सनद रहे, दशकों से पाकिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्कों की महत्वाकांक्षा और बाहरी बड़ी शक्तियों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता, खासकर निवर्तमान सोवियत यूनियन और अमेरिका के बीच चली खींचतान की पृष्ठभूमि में, सोवियत सेना के आगमन के बाद लगभग 43 लाख अफगान नागरिकों को पाकिस्तान और ईरान में शरणार्थी बनना पड़ा था। अफगानों से साथ सालों चली लड़ाई में 13,310 सोवियत सैनिक मारे गए थे और 35,438 घायल हुए थे। अंततः 1992 में सोवियत संघ को भी अफगानिस्तान से पलायन करना पड़ा था। इसके बाद शुरू हुआ दुर्दांत गृह युद्ध, एक ओर सोवियत संघ के समर्थन वाली नजीबुल्लाह सरकार थी तो दूसरी ओर पाकिस्तान की आईएसआई द्वारा प्रशिक्षित और कट्टरवादी बनाए गए अफगान ‘मुजाहिदीन’ थे। इनका साथ देने को 28000 से 30000 रूढ़िवादी पाकिस्तानी पश्तून आ मिले थे। इस घटनाक्रम में आगे ‘तालिबान’ का जन्म हुआ था। अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना को 19 साल पूरे हो चुके हैं। इस अवधि में 1,12,000 अफगान सैनिक और 45000 आम नागरिकों की जानें गई हैं।
ऐतिहासिक तौर पर अफगानिस्तान बहुजातीय इस्लामिक देश है। लगता है पाकिस्तान भूल रहा है कि अपने जिन चेलों यानी तालिबान को उसने तैयार किया है, वे लगभग सारे ही पश्तून हैं, जिनके हमबिरादरों की गिनती अफगानिस्तान की कुल आबादी में 42 फीसदी है और अधिकांशतः मुल्क के पूर्वी और दक्षिणी प्रांतों में बसे हुए हैं। जबकि बाकी के 58 फीसदी में ताजिक (37 फीसदी) हैं और अन्यों में उजबेक, हजारा (शिया), बलूच, तुर्कमानी इत्यादि छोटे जातीय समूह हैं। इस सबने इकट्ठे होकर पहले सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध लड़ा था और बाद में पाकिस्तान द्वारा पैदा किए तालिबानों के साथ क्योंकि वे पूरे देश पर अपना शासन बनाना चाह रहे थे। यह अफगानिस्तान में किंवदंती बन चुका ताजिक कमांडर अहमद शाह मसूद था, जिसने आईएसआई के सिखाए तालिबान का मुकाबला करने को हमख्याल लड़ाकू गुटों को साथ मिलाकर ‘नॉर्दर्न एलाएंस’ नामक संयुक्त मोर्चा बनाया था। आगे इस नॉर्दर्न एलाएंस की मदद भारत, ईरान और रूस ने राजनीतिक, सैन्य और राजनयिक तौर पर की थी।
न्यूयॉर्क की 9/11 की घटना के बाद वाले समय में और अहमद शाह मसूद की रहस्यमयी हत्या के दो दिन बाद अमेरिकी सेना का अफगानिस्तान में आगमन हुआ था। इस तमाम पृष्ठभूमि के चलते निरोल पश्तूनों से बने अफगानी तालिबान अपने बूते सत्ता पर काबिज नहीं हो सकते। न केवल कुल जनसंख्या के 58 फीसदी गैरपश्तूनों को तालिबान अस्वीकार्य हैं बल्कि खुद पश्तूनों में भी बड़ी संख्या ऐसी है जो इनके उग्रवादी तौर-तरीकों का समर्थन नहीं करते। लेकिन अमेरिका द्वारा जल्दबाजी में अफगानिस्तान से अपनी फौज हटाने के निर्णय के चलते आईएसआई के चेले तालिबान ने अपने सैन्य अभियान बढ़ा दिए हैं ताकि अफगान सरकार से औपचारिक वार्ता से पहले शांति स्थापना की शर्त पूरी करने से पूर्व जितना हो सके, मुल्क के हिस्सों पर अपना नियंत्रण बना लिया जाए। पाकिस्तान का उद्देश्य तालिबान के दबदबे वाली सरकार काबुल में बैठाना है, जो हमेशा उसकी कठपुतली बनी रहे।
पाकिस्तानी ठिकानों में स्थित अफगानी तालिबान के हाईकमान और क्वेटा बैठी ‘समझौता टीम’ के अगुवा हाल ही में बदले गए हैं, संकेत है कि नया नेतृत्व जिद्दी और गैर-समझौताकारी प्रवृत्ति रखने वाले कट्टर लोगों का है। हालांकि वैश्विक प्रतिबंधों से खुद को बचाने की खातिर पाकिस्तान उग्रवादी नेताओं पर कार्रवाई का नाटक कर रहा है, जिसमें दोहा में तालिबान के मुख्य वार्ताकार मुल्ला बारादर और आईएसआई के लाड़ले तालिबान गुट ‘हक्कानी नेटवर्क’ का सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी भी शामिल है। इसमें कोई शक नहीं कि तालिबान नेतृत्व को इल्म है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को अफगानिस्तान में मुंह की खाने को मजबूर होना पड़ा है। जहां एक ओर अफगान सरकार से सीधी वार्ता के लिए तालिबान की रजामंदी का स्वागत अमेरिका कर रहा है, वहीं अफगानों ने संज्ञान लिया है कि वार्ता दल में मुल्ला मोहम्मद याकूब को शामिल किया गया है। 30 वर्षीय याकूब तालिबान के संस्थापक दिवंगत मुल्ला उमर का बेटा है। पिता की तरह याकूब भी गैर-समझौताकारी कट्टर प्रवृत्ति रखता है।
आने वाले महीनों में जहां अमेरिकी फौज अफगानिस्तान छोड़ने की तैयारियों में जुटी हुई है वहीं तालिबान अपने हथियार तजने को तैयार नहीं है। तालिबान और अफगान सरकार के बीच गैर-पश्तून उत्तरी प्रांतों समेत अन्य जगहों पर लड़ाई आगे भी जारी रहेगी, यह पक्का है। चंगेज खान के वंशज और शिया संप्रदाय से संबंध रखने वाला जातीय गुट ‘हजारा’ का ईरान के साथ निकट संबंध है, जो अमेरिकी फौज की अपमानजनक वापसी के बाद अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका बनाए रखेगा, यह तय मानिए। एक ओर जहां पेंटागन के नीतिकार अफगानिस्तान में अमेरिका के सक्रिय सैन्य अभियान समेटने की तैयारियां कर चुके हैं वहीं अमेरिका पर यह दबाव भी है कि वह निर्वाचित अफगान सरकार को सैन्य साजो-सामान की सप्लाई जारी रखे। अमेरिका और उसके सहयोगी पश्चिमी देशों के संयुक्त गठबंधन को नेक सलाह है कि अफगान सरकार को माकूल आर्थिक मदद जारी रखें। भारत को भी तालिबान से गंभीर वार्ता करनी होगी ताकि काबुल, कंधार, जलालाबाद और मज़ार-ए-शऱीफ स्थित हमारे भारतीय राजनयिकों और अन्य सहायता परियोजनाओं में लगे भारतीय कर्मियों की सुरक्षा की गांरटी सुनिश्चित हो पाए।
हाल ही में डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला, जो अफगान सरकार द्वारा शांति वार्ता पर बनाई उच्च समिति के अध्यक्ष हैं, भारत की यात्रा पर आए थे। वे उन गिने-चुने अफगान नेताओं में हैं, जिनकी जातीय, सांस्कृतिक और धार्मिक सीमाओं से परे देशव्यापी छवि है। सबसे बड़ी बात यह है कि सोवियत संघ और तालिबान के खिलाफ लड़ाई में उन्होंने अहमद शाह मसूद के साथ मिलकर काम किया था और इस ताजिक नेता के भरोसेमंद सिपहसालार रहे थे। इसीलिए अफगान सरकार ने इस राजनेता को तालिबान से वार्ता करने वाले सरकारी दल का नेता बनाया है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज के आगमन से पहले भी तालिबान का चीन के साथ निकट संबंध रहा है। उस वक्त चीन की छवि मुस्लिम-विरोधी नहीं थी परंतु चीन के उइगर मुस्लिमों पर चल रहे अत्याचारों का इल्म तालिबान को पक्का होगा। अब देखना यह है कि क्या वे अपने मुस्लिम बंधुओं की खातिर उनकी बात उठाएंगे या फिर अपने पाकिस्तानी उस्तादों की तरह खामोशी अख्तियार किए रखेंगे? आखिर में, विश्वभर में महिलाओं से इतनी बदसलूकी और कहीं नहीं हुई, जितनी तालिबान के राज में देखने को मिली थी।
लेखक पूर्व राजनयिक हैं।