विलास जोशी
प. बंगाल का विधानसभा चुनाव बहुत रंग ला रहा है। दोनों पार्टियां एक-दूसरे पर बहुत आक्रामक होती जा रही हैं। मोदीजी कह रहे हैं कि हमने प. बंगाल के लोगों के लिए करोड़ों रुपये भिजवाए, लेकिन टीएमसी सरकार ने उन्हें जनता तक नहीं पहुंचने दिया। हम जनता के लिए 115 स्कीमें लेकर आए, जबकि आपकी दीदी 115 स्केम लेकर आईं। उधर, ममता दीदी कह रही हैं कि मैंने झूठे तो बहुत लोग देखे, लेकिन मोदी जैसा झूठा नहीं देखा। अब दीदी का एक बयान देखिए। वह भाषण के दौरान बोली, ‘मुझे लोकसभा सांसद के रूप में ‘एक लाख रुपये’ पेंशन मिलती, पर वह मैं नहीं लेती। दस साल में वह ‘दो करोड़ रुपये’ होती। मैं विधानसभा से भी वेतन भत्ते नहीं लेती। अगर लेती तो वह भी ‘दो लाख रुपये’ महीने होते हैं। पिछले दस साल में वह ‘चार करोड़ रुपये’ हो जाते।’
अपने देश के लोग बहुत ‘आंकड़ेबाज अर्थशास्त्री’ हैं। एक ऐसे ही महाशय ने दीदी के बताए हिसाब का आंकड़ा जोड़ा और बताया कि दीदी को सांसद के रूप में एक लाख रुपये पेेंेशन मिलती रहती तो साल भर के 12 लाख और दस साल के ‘एक करोड़ 20 लाख’ ही होते हैं। फिर उन्होंने ‘दो करोड़’ किस हिसाब से बताए? इसी प्रकार से जब उन्हें विधानसभा से ‘दो लाख’ रुपये मिलते तो एक साल के 24 लाख रुपये होते हैं और दस साल के ‘दो करोड़ रुपये’ ही होते हैं, जबकि वे उसका हिसाब ‘चार करोड़’ बता रही हैं। अब आप ही देखिए कि कौन है सच्चा और कौन है झूठा। किसी ने उनका ये चुनावी भाषण सुनकर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि भैया, सच तो यह है कि ‘दीदी के पास खाता है न कोई बही, दीदी जो हिसाब बता दे, वह एकदम सही।’
कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री स्वयं तो अपने हाथ एकदम साफ रखते हैं, लेकिन अपने मंत्रियों को हर माह पांच से दस करोड़ की वसूली का टारगेट दे देते हैं दीदी तीसरी बार पं. बंगाल में सत्ता पर काबिज होेने के लिए नाना प्रकार के हथकंडे आजमा रही हैं। वे चुनाव में ऐसे वादे कर रही हैं जैसे कांग्रेस पार्टी ने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के समय किए थे। वे जानती हैं कि कसमे वादे प्यार वफा, वादे हैं वादों का क्या। कोई किसी का नहीं है, फिर वादे पूरे करने की बात कहां रही? जबकि वहां का बेचारा मतदाता मन ही मन सोच रहा है कि ‘वादा तेरा वादा, वादे पे तेरे मारा गया, मैं बेचारा मतदाता।’
फिलहाल तो मतदाता के सामने सवाल यह है कि वह किसे सच्चा माने और किसे झूठा? मेरे विचार में तो सभी सच्चे हैं क्योंकि, चुनाव एक ऐसा ‘जादू’ है, जिसमें पार्टियों द्वारा दिखाए जाने वाले खेलों में बेचारा मतदाता ‘नजरबंदी के खेल’ का शिकार हो जाता है।