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शहादत से उपजा राष्ट्रभक्ति-समर्पण का ज्वार

कारगिल शहीदों का स्मरण
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प्रो. प्रेम कुमार धूमल

पच्चीस साल पहले कारगिल का संघर्ष क्या शुरू हुआ ऐसा लगा जैसे सारा राष्ट्र और प्रत्येक नागरिक देश के लिए कुर्बानी देने को तैयार था। देशभक्ति से ओतप्रोत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री, स्व. अटल बिहारी वाजपेयी सभी चुनौतियों और व्यक्तिगत सुरक्षा के खतरों को नज़रअंदाज करते हुए 2 जुलाई, 1999 को सीमा पर तैनात युद्धरत सैनिकों की पीठ थपथपाने के लिए स्वयं सीमा पर जा पहुंचे। प्रधानमंत्री को अपने साथ सीमा पर खड़ा देखकर सैनिकों का साहस तो सातवें आसमान पर पहुंचना स्वाभाविक था।

पांच जुलाई, 1999 को हम कारगिल के युद्ध क्षेत्र में जाने के बाद श्रीनगर के सैनिक अस्पताल में उपचाराधीन घायल सैनिकों को दैनिक उपयोग का आवश्यक सामान दे रहे थे। एक जवान चादर ओढ़े हुए लेटा था। उसने सामान पकड़ा नहीं, हमने बिस्तर के साइड टेबल पर सामान रखा और आगे बढ़ने लगे तभी डॉक्टर ने कहा कि माइन ब्लास्ट में इस वीर सैनिक के दोनों हाथ और दोनों पैर चले गए थे। हम फिर मुड़े और पूछा कि ‘बहुत दर्द होता होगा’, सैनिक ने उतर दिया, ‘कल शाम से नहीं हो रहा है।’ हमने पूछा क्या कोई दर्द निवारक दवाई ली या टीका लगा? उसने उत्तर दिया ‘नहीं, कल शाम (4 जुलाई को) हमने टाइगर हिल वापस ले लिया और तिरंगा फहरा दिया, मेरा दर्द चला गया।’ राष्ट्रभक्ति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना को शत-शत नमन।

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आजकल एक और विवाद देखने को मिला यहां शहीद की नौजवान विधवा ने मरणोपरांत मिलने वाले सम्मान व आर्थिक सहायता को शहीद के मां-बाप के साथ साझा करना उचित नहीं समझा। ऐसी समस्याएं आपरेशन विजय के बाद भी आई थीं। अधिकतर विधवाएं नवविवाहिता थीं और उनका पुनर्विवाह होना न्यायोचित भी था, परन्तु बुजुर्ग मां-बाप का सहारा भी तो शहीद जवान ही होता था। इसलिए पुनर्विवाह के समय प्रदेश और केन्द्र सरकार की ओर से मिली सारी की सारी अनुदान राशि, पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी आदि सभी को साथ ले जाना मां-बाप के साथ अन्याय था। अधिकतर मामलों में गरीब मां-बाप ने अपना पेट काट कर बेटे को पाला पोसा था। बुढ़ापे में नौजवान बेटे की शहादत और बहू का सब कुछ अपने साथ ले जाना उनके लिए दोहरा आघात होता था। हमने प्रदेश कैबिनेट की बैठक में निर्णय लिया कि अगर तो पुनर्विवाह उसी परिवार में होता है तो सभी कुछ वैसे ही रहेगा लेकिन यदि वीर नारी कहीं दूसरी जगह शादी करती है तो सरकार की ओर से मिली राशि में से आधी राशि उस युद्ध विधवा को और आधी राशि बूढ़े मां-बाप को दी जाएगी। यदि शहीद के बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हों और मां तथा दादा-दादी से अलग रहते हों तो एक-तिहाई राशि बच्चों को दी जाएगी।

राष्ट्रभक्ति के साथ-साथ एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता के भी कई उदाहरण देखने को मिले। शिमला जिले का एक अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखने वाला जवान शहीद हुआ था। घर की आर्थिक स्थिति भी कमजोर थी। जब हमने अनुग्रह राशि उन्हें दी तो उस शहीद के परिवार ने कहा, हमें आधी राशि ही दीजिए, अभी युद्ध चल रहा है और शहीद हो रहे हैं आपको कई और परिवारों की सहायता करनी है, हमें आधी राशि दे दो बाकि किसी और परिवार के काम आ जाएगी। शहीद की शहादत को तो नमन था ही पर गरीब परिवार की संवेदनशीलता और दूसरों के प्रति समर्पण की भावना से हम सभी द्रवित हो गए।

पालमपुर जहां एक ओर प्रथम परमवीर चक्र विजेता, मेजर सोमनाथ शर्मा का घर था, वहीं कारगिल युद्ध के नायक परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बतरा, का भी घर है। उस दिन हम कैप्टन विक्रम बतरा के पार्थिव शरीर का इन्तजार कर रहे थे, वहीं पर कारगिल युद्ध के प्रथम शहीद कैप्टन सौरभ कालिया की माता विजय कालिया और कैप्टन विक्रम बतरा की माता साथ-साथ बैठी थीं। विजय कालिया श्रीमती बतरा को ढांढस बंधा रही थीं, एक महान मां दूसरी महान माता को साहस बंधा रही थी। शायद यही जीवन है। इसी प्रकार जिला बिलासपुर की एक बहादुर मां कौशल्या देवी जब मिली तो उन्होंने कहा कि कल मंगल सिंह की अर्थी को डेढ़ किलो मीटर मैंने कंधा दिया। मैंने पहली बार सुना कि शहीद की मां ने अपने शहीद सुपुत्र की अर्थी को कंधा दिया हो।

सोलन जिला मुख्यालय में चपरासी के पद पर नियुक्त एक व्यक्ति का सैनिक बेटा शहीद हो गया। अंतिम संस्कार में भाग लेने के बाद हम उसके घर ढांढस बंधाने के लिए गए। शहीद की मां ने कहा कि मेरा बेटा देश के काम आ गया, दूसरा बेटा दसवीं कक्षा में पढ़ रहा है, यह भी पढ़कर फौज में भर्ती होगा और देश की सेवा करेगा।

जिला हमीरपुर के बमसन क्षेत्र में पहाड़ी के ऊपर एक बगलू गांव है, यहां से राजकुमार सुपुत्र खजान सिंह शहीद हुए थे। मैं उनके आंगन में पहुंच गया और इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, खजान सिंह बोले कि धूमल साहब, बेटे तो पैदा ही इसलिए किए जाते हैं कि पढ़े, लिखें और बड़े होकर फौज में भर्ती हों और देश की रक्षा करें। उन्होंने अपने दोनों पोते मुझसे मिलाये और कहा, ये भी पढ़कर फौज में भर्ती होंगे और देश की सेवा करेंगे। उन्होंने मुझे कहा, आप दिल्ली जाएंगे तो प्रधानमंत्री, वाजपेयी जी को कहना कि जवानों की यदि कमी हो तो 82 वर्ष का हवलदार खजान सिंह आज भी हथियार उठाकर देश की रक्षा करने के लिये तैयार है।

शहीदों का अदम्य साहस, परिवारों का सम्पूर्ण समर्पण, अटल जी का दृढ़ निश्चयी नेतृत्व सदियों तक देश के लिए प्रेरणा रहेगा। 5 जुलाई को अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अटल जी को फोन करके कहा कि पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ उनके पास पहुंच गये हैं और अटल जी से आग्रह किया कि वे भी युद्धविराम की घोषणा कर दें। तब श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी का कथन था ‘जब तक एक भी घुसपैठिया कारगिल में है, तब तक न युद्धविराम होगा और न मैं देश छोड़कर कहीं जाऊंगा।’ ये कथन इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। प्रधानमंत्री के इस दृढ़संकल्प से सैनिकों व देशवासियों में नई ऊर्जा आ गई थी।

लेखक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं।

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