हर साल एक मई को मनाया जाने वाला ‘मई दिवस’ दुनिया भर के मेहनतकशों का एक अहम अवसर है। इस दिन श्रमिक वर्ग शोषण से मुक्ति के संकल्प को नई ऊर्जा के साथ उद्घोषित करते हैं। अमेरिका में 1886 के शिकागो शहीदों को समर्पित मई दिवस धर्म, जाति, समुदाय, क्षेत्र, लिंग आदि से ऊपर उठकर समानता, न्याय और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष का एक विशिष्ट अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक माना जाता है।
1 मई, 1886 को शिकागो की एक बड़ी सभा के रूप में श्रमिक असंतोष दर्ज हुआ था और अमेरिका के लाखों मजदूरों ने उस दिन हड़ताल की थी। दरअसल जो हिंसक घटना रची गई वह 4 मई को हुई थी जिसे बहाना बनाकर सात प्रमुख श्रमिक नेताओं पर मुकदमा चलाकर उन्हें 1887 में फांसी की सजा सुनाई गई। चार श्रमिक नेताओं को फांसी दी गई, एक ने फांसी से पहले जेल में आत्महत्या कर ली और दो की सजा उम्र कैद में बदल दी गई। मुकदमे के फर्जीवाड़े का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1893 में गवर्नर जाॅन पीटर ने उम्र कैद के दोषियों को यह कहकर बरी कर दिया था कि पूरे मुकदमे में पर्याप्त सबूत नहीं थे और मुकदमे की कार्रवाई न्यायोचित नहीं थी। अफसोस कि फांसी देकर जिनकी जान ले ली गई वे गवर्नर के न्यायपूर्ण फैसले के बावजूद, वापस नहीं आ सकते थे। यह मात्र संयोग ही नहीं कहा जा सकता कि इस मुकदमे और भगतसिंह व उनके साथियों पर चले मुकदमे में कमाल की समानता है। ध्यान रहे कि भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने भी पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में ही संसद में नकली बम फेंका था और पब्लिक सेफ्टी बिल ब्रिटिश सरकार द्वारा श्रम अधिकारों पर अंकुश लगाने हेतु लाया गया था।
शिकागो की घटना के बाद से 1 मई दुनिया भर में मजदूर दिवस के तौर पर मनाया जाने लगा। भारत में सबसे पहले मई दिवस 1923 में मद्रास में आयोजित किया गया जिसे अगले साल यानी 2023 में पूरी एक शताब्दी होने जा रही है। जाने-माने ट्रेड यूनियन नेता और स्वतंत्रता सेनानी सिंगारावेलु चेट्टियार की पहल कदमी में पहला मई दिवस मनाया गया था।
यह लंबा सफरनामा अपने आप में ऐसे अद्भुत इतिहास का निर्माण करता आया है जिसमें न केवल श्रमिक वर्ग बल्कि मानव मुक्ति की प्राकृतिक जिज्ञासा ने नए-नए मार्ग सृजित किए हैं। मई दिवस का आयोजन कोई रस्म अदायगी नहीं है बल्कि नव उदारीकरण के मौजूदा दौर में लगातार इसकी प्रासंगिकता और भी ज्यादा बढ़ी है। आज देशों के बीच और देश के भीतर मुट्ठी भर घरानों और आम जनता के बीच गैर बराबरी आश्चर्यजनक रूप ले चुकी है। ऑक्सफैम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 10 सबसे धनवानों के पास देश की कुल संपदा का 57 फ़ीसदी हिस्सा है जबकि नीचे से आधी आबादी के पास देश की संपदा का सिर्फ 13 फ़ीसदी हिस्सा ही है। महामारी के दौरान किए गए लॉकडाउन के दौरान जब देश के लाखों प्रवासी परिवार दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हुए तब भी कारपोरेट घरानों के मुनाफे सैकड़ों गुना की दर से बढ़ रहे थे।
बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी, भूख और कमरतोड़ महंगाई ने गरीब तबकों के लिए तो अस्तित्व का ही संकट खड़ा कर दिया है। विज्ञान और तकनीक का विकास असल में जनता के जीवन को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयोग होना चाहिए था लेकिन उसने जनता को ही बेरोजगार कर डाला। महिला श्रमिकों को सबसे पहले बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। बेरोजगारों की यही रिजर्व फोर्स कारपोरेट के लिए वरदान भी साबित हो रही है। पूंजी के लिए अधिकतम मुनाफा ही सर्वोपरि होता है और वह जनहित से ऊपर होता है। इसके विपरीत यदि समाज को समग्र विकास की दिशा में आगे ले जाना है तो जनहित को मुनाफे से ऊपर रखना होगा। ऐसा नहीं हुआ तो व्यवस्था का मौजूदा चौतरफा संकट और भी अधिक गहरा होना निश्चित है।
हमारे देश के शासक वर्गों की नीतियां पूरी तरह से कारपोरेट को समर्पित हैं। जिस प्रकार तीन कृषि कानून थोपे गए थे उसी प्रकार 44 श्रम कानूनों को निरस्त करके चार लेबर कोड बनाए गए हैं। इनके लागू हो जाने के बाद कंपनियों के मालिक अपनी मनमर्जी से श्रमिकों को नौकरी से निकालने को स्वतंत्र होंगे। यही नहीं बल्कि 8 घंटे काम की जो मांग सदियों पहले मानी जा चुकी थी उसे भी नकार कर 10 घंटे और 12 घंटे काम लिया जाने लगा है।
मजदूर और किसानों के बीच इस हालात में जो व्यापक स्तर पर आक्रोश पनप रहा है उससे ध्यान भटकाने के उद्देश्य से उन्हें आपस में लड़ाकर उनकी एकता तोड़ने की कोशिशें किसी से छिपी नहीं हैं। यह जरूरी हो गया है कि मेहनतकश जनता अपनी रोजी- रोटी और ट्रेड यूनियन जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए देश के संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की सुरक्षा को भी साथ जोड़ कर चलें। वह परस्पर सद्भाव को बचाए रखकर ही अपनी आजीविका की रक्षा कर पाएंगे।