
विजय शर्मा
विजय शर्मा
बाइक पर स्टंट मुद्रा में एक छोरा भरे चौक में क्या घुसा, पहले से लगे जाम में भी उसके लिये रास्ता बन गया। पता है क्यों? क्योंकि वो एक ‘शोरवीर’ है। ब्रेक और एक्सीलेटर से ज्यादा हॉर्न पर अटूट आस्था है। इसीलिये हॉर्नों के हॉर्न यानी प्रेशर हॉर्न को फिट करवाया है। किसी की क्या मजाल जो दायें-बायें भी फटक जाये। किसी को अपनी टांग की फिक्र तो किसी को कमजोर दिल का ख्याल। किसी को बीवी-बच्चों की चिंता। जिसे कुछ नहीं चाहिए उसे भी कान सही-सलामत चाहिए।
वैसे, शोरवीर-शोरांगनाएं सड़क से लेकर संसद, टीवी स्टूडियो और सार्वजनिक वाहनों तक में सक्रिय हैं। जुबान के बल के जरिये जनता को जगाये रखने के इस पुनीत कार्य में पार्टी के वक्ता-प्रवक्ता भी शामिलसाज बजा रहे हैं। इयर फोन के टिन्नी से माइक ने रेंज और बढ़ा दी है। कान में लगाया और हो गए मुंह से शुरू। यदि संवाद स्पीकर के माध्यम से जारी है तो फिर क्या कहने। झेलो शोर की डबल डोज। कहीं भी ऐसे नमूने मिल जाएंगे। किसी ने टोक दिया तो बांहें चढ़ जाएंगी। आखिर, शोर प्रसारक एक प्रकार का वीर जो ठहरा। गरज तो रहा ही था, अब बरस भी सकता है। किसने कहा कि गरजने वाले बरसते नहीं? आजकल के गरजने वाले बरसते भी हैं, भिगोते भी हैं और अच्छी तरह निचोड़ते भी हैं। बशर्ते, सामने वाला नीबू बनने को तैयार हो।
दरअसल, प्रदूषण तो मात्र एक परिणाम है, जबकि जड़ है ध्वनि को विस्तार देने की मनोवृत्ति। मुझे इस पर भी आपत्ति है ‘शोर’ शब्द के बाद ‘गुल’ क्यों लगा दिया गया। भाई शोर तो आतंक है, विस्फोट है, धमाका है और गुल यानी फूल तो बेचारा नाजुक, मासूम और सुंदर है। मुझे तो ‘शोरशराबा’ शब्द भी नहीं हजम होता क्योंकि इससे अलग-अलग ब्रांड की बू आती है। हां, मेरी खोपड़ी में इनबिल्ट ऑब्जर्वेटरी इतनी जरूर टिप्पणी कर रही है कि इन सबसे यह पता चलता है कि शोर को हर दौर में कितना पाला-पोसा गया है। शहरों में यही परंपरा आज बुलेट के मोडिफाइड साइलेंसर से निकाले जाने वाले पटाखे और काले शीशे की बंद कार के भीतर हाई वॉल्यूम म्यूजिक तक आ पहुंची है। यह क्या कम है कि शोर के पहले और बाद में शांति का स्थान बना हुआ है।
देश के कितने ही घरों में अघोषित युद्धविराम इसलिए कायम है क्योंकि वहां मियां-बीवी नामक शोरवीर और शोरांगनाएं उपलब्ध हैं। युद्ध से पहले और बाद की शांति की तरह। जरा-सी चिंगारी फूटी और बजने लगीं दीवारें। भाई, डेसीबल और बाहुबल भी तो कोई चीज होती है। जैसे तीव्र स्वर के आगे कोमल स्वर की औकात नहीं उसी तरह जितना ऊंचा स्वर, उतना घनघोर असर।
दरअसल, शोरवीरों की सत्ता दब्बू, पिद्दी और शोरखोरों से चलती है। खामोशी, सन्नाटा, सुकून उन्हें फूटे भाग नहीं सुहाता। मुसलसल अमन से उन्हें खुजली शुरू हो जाती है। दहाड़, गरज, हुंकार और हो-हल्ला तो उनके शृंगार हैं। झुंझलाने, चिड़चिड़ाने और खीझने वालों के हिस्से आता है सिर्फ नक्कारखाने में तूती बनना।
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