एक बार गांधी जी बिहार के चंपारण जिले के एक गांव में ठहरे हुए थे। एक शाम गांधी जी ने देखा कि कुछ लोग ढोल बजाते हुए जुलूस निकालकर एक देवी मंदिर की तरफ जा रहे हैं। उनके आगे आगे एक हृष्ट पुष्ट बकरा चल रहा है। बकरे के माथे पर टीका और गले में मालायें पड़ी हैं। गांधी जी ने अपने कार्यकर्ताओं से पूछा-यह क्या मामला है? कार्यकर्ताओं ने बताया कि देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जायेगी। जैसे ही जुलूस मंदिर पर पहुंचा, गांधी जी भी लंबे-लंबे डग भरते हुए वहां पहुंच गए। गांधी जी को वहां देखकर सब सकपका गए। गांधी जी ने कहा-आप लोग देवी को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि देना चाहते हैं, तो फिर मनुष्य की बलि देकर भोग चढ़ायें क्योंकि मनुष्य बकरे से श्रेष्ठ है। यहां आप में से कौन है जो देवी मां को प्रसन्न करने के लिए अपनी बलि देगा। वह आगे आए। थोड़ी देर रुककर गांधी जी ने कहा-अगर आप में से कोई बलि देने को तैयार नहीं है तो मैं अपनी बलि देने को तैयार हूं। गांधी जी की यह बात सुनकर सभी ने उनसे माफी मांगी और कभी बलि न देने का निर्णय लिया। गांधी जी ने उपस्थित जनों को समझाया-गूंगे और निर्दोष प्राणियों की बलि से देवी प्रसन्न नहीं होती। निर्दोष की बलि चढ़ाना पाप है, पुण्य नहीं। और यह अधर्म भी है।
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा