महात्मा बुद्ध की सभा हो रही थी। सभा के पश्चात एक अनुयायी उठकर बोला, ‘प्रभु, एक निवेदन है। मेरा यह दुशाला पुराना हो चला है। क्या आप मुझे एक नया वस्त्र दिलवा सकते हैं।’ बुद्ध ने उसके वस्त्र की जर्जर अवस्था देखकर एक भिक्षु से कहकर उसे नया वस्त्र दिलवा दिया। अनुयायी प्रसन्न भाव से नया वस्त्र लेकर चला गया। कुछ समय पश्चात बुद्ध उस अनुयायी के घर के पास से गुजरे तो उससे पूछ बैठे, ‘वत्स, अब तो तुम आराम से हो न? तुम्हें और कुछ तो नहीं चाहिए।’ अनुयायी प्रसन्न होकर बोला, ‘प्रभु, अब कुछ नहीं चाहिए। बुद्ध ने पूछा, ‘तुमने पुराने दुशाले का क्या किया।’ ‘प्रभु, वह तो अब ओढ़ने के काम आ रहा है’ अनुयायी ने जवाब दिया। ‘तो पुरानी ओढ़नी का क्या कर रहे हो।’ ‘जी, वह तो खिड़की पर पर्दा बनकर लटक रहा है।’ ‘क्या पुराना पर्दा फेंक दिया’, बुद्ध ने उत्सुकता से पूछा। अनुयायी ने कहा, ‘जी, उसके तो चार टुकड़े करके रसोई में प्रयोग कर रहा हूं।’ ‘और उन पुराने कपड़ों को कहां डाल दिया।’ ‘जी, उनसे तो अब साफ-सफाई और पोंछे का काम ले रहा हूं। प्रभु, आप से ही सीखा है कि प्रकृति का कण-कण उपयोगी है। बस, उसी सीख पर चल रहा हूं।’ बुद्ध ने भावविभोर होकर अनुयायी को गले लगा लिया। प्रस्तुति : मुकेश कुमार जैन