एक बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय लखीमपुर के संघ कार्यालय में रुके हुए थे। उन्होंने एक दिन अपने सहयोगी बसंत राव वैद्य के सामने अपने बक्से में से कागज़ निकाले और बोले, ‘बसंत राव! इन तमाम कागज़ों को जला डालो, ये बेकार हैं।’ बसंत राव ने उन कागज़ों पर निगाह दौड़ाई तो देखा कि उन कागज़ों में पंडित जी के महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालय के अध्ययन काल में मिले हुए अनेक प्रशंसा-पत्र, प्रमाण-पत्र तथा संस्थाओं द्वारा प्रदान किए गए अभिनन्दन-पत्र आदि थे। बसंत राव ने धीरे से कहा, ‘पंडित जी! इन कागज़ों में तो अनेक महत्वपूर्ण प्रमाण-पत्र हैं, जिनसे आगे चलकर आपके असाधारण व्यक्तित्व और विलक्षण गुणों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकेगा।’ पंडित जी बोले, ‘अरे भाई! जब मैंने अपना पूरा जीवन भारत माता के चरणों में अर्पित कर दिया है तो भला इन प्रमाण-पत्रों से अब क्या और कौन-सा लाभ मैं उठा सकता हूं? उपाधियां मन में अहंकार पैदा करने वाली व्याधियां ही सिद्ध होती हैं। राष्ट्र और समाज का काम करने वालों को तो अहंकार से दूर ही रहना चाहिए।’ प्रस्तुति : सुभाष बुड़ावनवाला
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।