संत सत्यानन्द वन में कुटिया बनाकर रहते थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि जब तक किसी अतिथि को अपनी कुटिया में बुलाकर उसे प्रेमपूर्वक भोजन न करा दें, तब तक स्वयं भी भोजन नहीं करते थे। आए हुए अतिथि के साथ पहले दोनों भजन पूजन करते थे, फिर साथ मिलकर भोजन करते थे। एक बार जब दोपहर तक भी कोई राहगीर घर के सामने से नहीं गुजरा तो वह स्वयं ही किसी भूखे की तलाश में निकल पड़े और एक वृद्ध भूखे को एक वृक्ष के नीचे विश्राम करते देख पकड़ लाए। उन्होंने उसके हाथ-पैर धुलवाकर बिठाया और भोजन परोस दिया। भोजन सामने आते ही बूढ़ा उस पर टूट पड़ा। संत ने बूढ़े को रोकते हुए ईश्वर को याद करने के बाद ही भोजन करने को कहा। इस पर बूढ़ा बोला, ‘एक भूखे के लिए भोजन से बढ़कर कोई ईश्वर नहीं होता।’ यह सुनकर संत ने बूढ़े के सामने से थाली खींच ली और उसे बाहर धकेल दिया। रात में संत को ईश्वर ने दर्शन दिए और कहा, ‘बूढ़े के प्रति तुम्हारे आज के व्यवहार ने तुम्हारे अब तक के पुण्यों को क्षीण कर दिया है। जिस इनसान को मैं सौ वर्षों से सहता आ रहा हूं, तुम उसे एक पल भी नहीं सह सके।’ यह स्वप्न देखते ही संत की आंखें खुल गईं, जिनमें अब पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं था।
प्रस्तुति : मुकेश कुमार जैन