
एक समय में राजा शारदानन्द की विद्योत्तमा नाम की पुत्री थी जो परम विदूषी थी। उसे अपनी विद्वत्ता पर बड़ा अभिमान था। उसने शर्त रखी थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा उसी से वह विवाह करेगी। कुछ पराजित विद्वानों ने षड्यंत्र करके उसका विवाह एक निपट मूर्ख से करवा दिया परन्तु शीघ्र ही उसे विदित हो गया कि छलपूर्वक एक मूर्ख संग उसका विवाह कराया गया है। राजकुमारी ने सद्यः अपने पति को यह कहकर घर से निकाल दिया कि विद्वान बनकर ही लौटना अन्यथा नहीं। पत्नी द्वारा अपमानित करके निकाले गए उस व्यक्ति के जब ज्ञान चक्षु खुले तो उसने अनेक स्थानों का भ्रमण किया तथा वेद-शास्त्रों का गहन अध्ययन करके विद्वत्ता प्राप्त की। तदनन्तर वह घर लौटा और घर का द्वार बन्द देखकर उसने अपनी पत्नी को लक्ष्य करके कहा, ‘सुंदरि! अपट कपाटं देहि।’ (हे रूपसी, दरवाजा खोलिए) यह सुनकर विद्योत्तमा चौंक पड़ी और सहसा मुख से निकला, ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः।’ (वाणी में कुछ विशेषता है) कालान्तर में उस विद्वान् ने इस वाक्य के तीन पदों से प्रारम्भ करके तीन ग्रंथों कुमारसंभवम्, मेघदूतम् तथा रघुवंशम् की रचना कर डाली। यह व्यक्ति कोई और नहीं वरन् संस्कृत के उद्भट विद्वान् महाकवि कालिदास ही थे।
प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा
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