मोहन मैत्रेय
दशम पिता गुरु गोबिंद सिंह जी संत-सिपाही तो थे ही, महान साहित्यकार एवं शिक्षा शास्त्री भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों का केवल बाह्य रूप ही नहीं बदला, अपितु उनका चिंतन एवं भावनात्मक रूप भी बदल डाला। डाॅ. अमृत रेणा का कथन अत्यन्त सार्थक है- ‘संत सिपाहियों, स्वाभिमानी, शूरवीरों को जन्म दिया। पराजित कौम की सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर सवा लाख से एक को लड़ाया। देश-कौम के लिए हंसते-हंसते प्राण न्योछावर करना सिखाया। स्वाभिमान से सिर ऊंचा करके जीना सिखाया।’
शरीर मनुष्य का पहला धर्म है। यह मनुष्य की महत्वपूर्ण पंूजी है। इसी से धर्म (पूजा-अर्चना एवं कर्तव्य पालन) होता है। गुरु ग्रंथ साहिब में उल्लेख है- ‘हरि मंदरु एहु सरीरु है…’। गुरु अंगद देव जी के समय से शारीरिक शिक्षा गुरु साहिबान के पाठ्यक्रम का अविभाज्य अंग बन गयी थी। गुरु हरगोबिंद साहिब तथा गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल अत्याचारों से निष्प्राण हिंदुओं को शारीरिक रूप से स्वस्थ होने का महत्व समझाया तथा सैन्य शिक्षा के माध्यम से सशक्त बनाया।
वास्तव में सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देव जी के समय से ही हिन्दू समाज के रूपान्तरण का कार्य शुरू हो गया था। गुरु नानक देव ने कर्मकाण्ड के विकृत रूप और अंधविश्वासों से मुक्त करने हेतु ही ‘संगत-पंगत’ की नीति को अपनाया। गुरु अंगद देव ने ‘पर्दा’ और सती प्रथा का विरोध किया तथा ‘लंगर’ की प्रथा को आगे बढ़ाया। श्री जीसी नारंग ने इन कार्यक्रमों की प्रशंसा करते हुए कहा है कि इनसे हिन्दू समाज सुदृढ़ हुआ। गुरु रामदास ने अमृतसर की नींव रखी। समाज को सुदृढ़ तथा संगठित करने में गुरु अर्जुन देव की भूमिका सराहनीय थी। उन्होंने पूर्ववर्ती गुरुओं तथा भक्तों की वाणी का संकलन करके आदि ग्रंथ का रूप दिया। वहीं, गुरु तेगबहादुर जी की शहादत ने जन-जन में जागृति की लौ जला दी। उनकी शहादत पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा-
तिलक जंजू राखा प्रभु ताका।
कीनो बड़ो कलू महि साका।।
साधनि हेति इति जिनि करी।
सीसु दिया पर सी न उचरी।।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने किस प्रकार जन-जन को जाग्रत कर भक्ति से शक्ति का मेल कर दिया, यह एक चिर-स्मरणीय इतिहास है। अपने पुत्रों के बलिदान पर यह साहस गुरु जी में ही था- इन पुत्रन के सीस पै वार दिये सुत चार। चार मुए तो क्या भया जीवित कई हजार।।
गुरु गोबिंद सिंह जी के समय में एक ओर तो अत्याचारी मुगल सम्राट औरंगजेब का आतंक था, तो दूसरी ओर हिन्दू जाति-पाति के रोग से ग्रस्त थे। सामाजिक, धार्मिक मूल्य लुप्त हो चुके थे। संक्षेप में यह कहना संगत होगा कि सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, शैक्षणिक-सांस्कृतिक सभी प्रकार का शून्य था। ऐसी स्थिति में प्रथम गुरु नानक देव द्वारा शुरू किये गए अभियान को उन्होंने नयी सशक्त दिशा दी।
गुरु गोबिन्द सिंह की साहित्यिक देन भी कुछ कम नहीं। आप स्वयं उच्च कोटि के कवि-सर्जक थे। भाई संतोख सिंह के अनुसार आपके साहित्य दरबार में बावन कवि थे। आपने गुरु अर्जुन देव द्वारा संपादित आदि ग्रंथ साहिब में गुरु तेग बहादुर तथा अन्य की वाणियों को सम्मिलित कर गुरु ग्रंथ साहिब का सृजन किया। बचितर नाटक, चंडी दी वार, चंडी चरित्र, जाप साहिब, अकाल उस्तुत, ज्ञान प्रबोध, श्री शस्त्र नाम माला, शबद हजारे, 33 सवैये समेत कई रचनाएं लिखीं, जो दशम ग्रंथ में संकलित हैं। दशम ग्रंथ में गुरु जी प्रभु को अनेक नामों से स्मरण करते हैं-
प्रभ जू तो केह लाज हमारी नीलकंठ नरहर नारायण नील बसन बनवारी। परम पुरख परमेसर स्वामी पावन पउन अहारी।। माधव महा जोति मद-मरदन मान मुकंद मुरारी।