कामरूपी वृक्ष
गंगापुत्र भीष्म ने युधिष्ठिर को ज्ञान देते हुए कहा कि मनुष्य की हृदय भूमि में मोहरूपी बीज से उत्पन्न हुआ एक विचित्र वृक्ष है, जिसका नाम ‘काम’ है। क्रोध और अभिमान इसके ‘कंधे’ हैं। अज्ञान जड़ है। आलस्य इसको सींचने वाला जल है। दूसरों के दोष देखना इसके पत्ते हैं। पूर्व जन्म में किए हुए पाप इसका सार भाग (मुख्य तना) हैं। शोक इसकी शाखाएं, मोह व चिंता डालियां और भय इसके अंकुर हैं। लोभी मनुष्य लोहे की जंजीरों के समान, वासना के बंधनों में बंधकर, इस वृक्ष को चारों ओर से घेरकर आसपास बैठे रहते हैं और फल प्राप्त करना चाहते हैं। जो मनुष्य उन वासना के बंधनों को वश में करके, वैराग्य रूपी शस्त्र द्वारा, उस कामरूपी वृक्ष को काट डालता है, वही दुखों से पार होता है। जो फल के लोभ में सदा उस वृक्ष पर चढ़ता है, उसे वह वृक्ष ही मार डालता है, ठीक उसी प्रकार जैसे खाई हुई विष की गोली, रोगी को मृत्यु की तरफ ले जाती है। इस कामरूपी वृक्ष की जड़ें बहुत दूर तक फैली हुई हैं। कोई विद्वान पुरुष ही ज्ञानयोग के प्रसाद से समता रूपी उत्तम तलवार द्वारा उसे बलपूर्वक काटने में समर्थ होता है।
-महाभारत (साभार महाभारत के जाने-अनजाने पात्र)