एक बार संत तुकडोजी महात्मा गांधीजी के आश्रम में एक महीने के लिए रहने आए। एक दिन गांधी ने उन्हें एक कहानी सुनाई- एक गरीब आदमी था और एक पैसे वाला। दोनों के ही घर आसपास थे। एक दिन गरीब के घर में चोर आ गए। गरीब की आंख खुल गई। उसने देखा कि चोर इधर-उधर परेशान होकर चीजें खोज रहे हैं। वह उठा और बोला, ‘आप क्यों परेशान होते हैं। मेरे पास जो कुछ है, वह मैं अापको देता हूं।’ उसके पास जो दस-पांच रुपए थे, वे उनके हवाले कर दिए। चोरों ने अचरज से देखा और रुपये लेकर चलते बने। फिर वे धनी आदमी के यहां पहुंचे। वह पहले से ही जाग रहा था। उसने उनकी बातें सुन ली थीं। सोचा, जब गरीब ऐसा कर सकता है तो वह क्यों नहीं कर सकता। उसने चोरों से कहा, ‘आप लोग बैठो। मेरे पास जो कुछ है, वह मैं तुम्हें दिए देता हूं।’ फिर, उसने अपनी जमा-पूंजी लाकर उनके सुपुर्द कर दी। चोरों को काटो तो खून नहीं। उनके अंदर विवेक जाग उठा। अमीर-गरीब का सारा माल छोड़कर वे चले गए और चोरी त्यागकर साधु बन गए।’ कहानी सुनाकर महात्मा गांधी ने कहा, ‘मैं हिंसा के मुख में अहिंसा को इसी तरह झोंक देना चाहता हूं। आखिर कभी तो हिंसा की भूख शांत होगी।’ प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।