दीपिका अरोड़ा
श्री गुरु नानकदेव जी का समूचा जीवन ही स्वयं में सम्पूर्ण दर्शन-शास्त्र है। नारी सम्मान को सर्वोच्च स्थान प्रदान करते हुए उन्होंने कहा- ‘सो क्यों मंदा आखिए, जित जम्मे राजान’।।
दिखावे की भक्ति व आडंबरों का उन्होंने खंडन किया। वे मानवीय एकता के पुरोधा थे। सुल्तानपुर लोधी में बेई नदी पर जब एक दिन स्नान हेतु गये, तो तीन दिन बाद लौटे। उस समय उनके मुख से निकलने वाले पावन शब्द थे-
‘न को हिन्दु, न मुसलमान’।।
वे एक ईश्वर की आराधना पर ही बल देते थे। उनके अनुसार ‘एक ओंकार’ से ही संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। ‘ईश्वर निरंकार है, ईश्वर आत्मा है, रचयिता है, अविस्मरणीय है, जन्म-मृत्यु से परे है, कालविहीन है, काल निरपेक्ष है, भयरहित है एवं कर्ता पुरख है। ईश्वर सब जानने वाला, अन्तिम सत्य, दाता, सर्वव्यापी है। वह सतनाम कभी न खत्म होने वाला, सदैव सत्य है।’
उन्होंने लंगर व्यवस्था पर विशेष बल दिया ताकि मिल-बांटकर खाने से धार्मिक व जातिगत भेद समाप्त हों, समाज में भ्रातृत्व का प्रसार हो। परमार्थ को परम धर्म की संज्ञा देते हुए उन्होंने पिता द्वारा व्यापार करने के लिए दिए गए बीस रुपयों से भूखे साधुओं को भोजन करवाने को ही ‘सच्चा सौदा’ बताया। सुल्तानपुर लोधी में नबाब दौलत खां लोधी के मोदीखाने में नौकरी करने के दौरान तोल जब तेरह पर पहुंचता तो परमेश्वर से ऐसी लौ लगती कि सब कुछ भूलकर बस ‘तेरा-तेरा’ में ही वृत्ति रम जाती। परिश्रम से अर्जित धन को सर्वोत्तम मानते हुए उन्होंने भाई लालो जी का आतिथ्य स्वीकार किया। मलिक भागो के मिथ्या अभिमान को तोड़कर समाज के सामने उदाहरण पेश किया कि हक-हलाल की रूखी-सूखी रोटी, उन सरस व्यंजनों से कहीं बेहतर है जिनमें बेईमानी से कमाया, गरीबों का हक रूपी रुधिर शामिल है।
अज्ञानता का अंधकार मिटाने के लिए ही उन्होंने ‘चार उदासियां’(धार्मिक यात्राएं) की। वे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी दिशाओं में पहुंचे। इन उदासियों में रबाबी मरदाना जी भी उनके साथ ही बने रहे। जहां कहीं भी वे गए, अंधविश्वासों, आडंबरों के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया।