वाचस्पति मिश्र की शादी छोटी उम्र में ही हो गई थी। जब वह पढ़ाई पूरी करके घर वापस लौटे तो उन्होंने अपनी मां से वेदांत दर्शन पर टीका लिखने की आज्ञा मांगी। जब वह टीका लिखने लगे तो उन्होंने मां से कहा जब तक उनका टीका पूरा न हो जाए, तब तक उनका ध्यान भंग न किया जाये। मां काफी वृद्ध हो चुकी थीं तो उन्होंने मदद के लिए अपनी बहू भामती को बुला लिया। भामती ने सारी जिम्मेदारी उठा ली। साधनारत विद्वान यह भी भूल गये थे कि उनकी पत्नी कौन है। एक दिन वे ब्रहासूत्र के शांकरभाष्य पर टीका लिख रहे थे लेकिन एक पंक्ति कुछ ढंग से नहीं लिखी जा रही थी। दीपक भी कुछ धुंधला हो चला। उनकी पत्नी दीये की लौ बढ़ा रही थी। इतने में वाचस्पति मिश्र की दृष्टि उस पर पड़ी तो उन्होंने पूछा, ‘तुम कौन हो?’ पत्नी बोली, ‘ हे देव! मैं आपकी पत्नी हूं। आज से छत्तीस वर्ष पूर्व हमारा विवाह हुआ था।’ पत्नी के याद दिलाने से वाचस्पति मिश्र के मन में प्रकाश जगा और उन्होंने पत्नी से कहा, ‘तुम्हारे साथ मेरा विवाह हुआ। छत्तीस वर्ष तुमने मौन रहकर मेरी सेवा की। तुम्हारे त्याग व उपकार अनन्त हैं। अपनी इच्छा बताओ।’ पत्नी भामती बोली, ‘मेरी कोई इच्छा नहीं है। आपने जगत के कल्याण के लिए अनेक शास्त्रों की टीकाएं लिखी हैं। मैं आपकी सेवा से कृतकृत्य हूं।’ वाचस्पति मिश्र का दिल भर आया। बोले, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’ ‘इस दासी को भामती कहते।’ वाचस्पति मिश्र ने कहा, ‘मैं शांकरभाष्य पर जो टीका लिख रहा हूं उसका नाम भामती टीका रखूंगा।’
प्रस्तुति : किरणपाल बुम्बक