निष्काम भाव से कर्म का निष्पादन ही संन्यास : The Dainik Tribune

निष्काम भाव से कर्म का निष्पादन ही संन्यास

निष्काम भाव से कर्म का निष्पादन ही संन्यास

संन्यास जीवन के अन्तिम वर्षों में ही धारण नहीं किया जाना चाहिए अपितु प्रथमाश्रम से ही इसका अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिए। संन्यस्त होने का अभ्यास अतिशय मोहलिप्तता से सुरक्षा प्रदान करके जीवन को सहज बना देता है।

डॉ. नरेश

आपने संन्यासी-संन्यासिन देखे होंगे। घर-परिवार-संसार त्यागकर कुछ लोग वन या पर्वत की कन्दरा में जा बैठते हैं। ये लोग भिक्षा-यापन के लिए निकट की आबादी में आते हैं। इस दृष्टि से संन्यास का अर्थ संसार-त्याग एवं एकांतवास है लेकिन यह सही नहीं है। संसार-त्याग के बावजूद अपने भरण-पोषण के लिए वे संसार पर ही निर्भर रहते हैं क्योंकि पेट तो वन या पर्वत कन्दरा में भी भोजन मांगता है, शरीर ओढ़ने के लिए वस्त्र मांगता है, बीमारी में दवा मांगता है।

शास्त्रों में जीवन के चार आश्रम बनाए गए हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। इन चारों में संन्यास अन्तिम आश्रम है अर्थात‍् अन्य तीन आश्रमों में से सफलतापूर्वक निकलने के बाद संन्यास की स्थिति आती है। संन्यास का शब्दकोश्ाीय अर्थ वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति त्यागी और विरक्त होकर सब कार्य निष्काम भाव से करता है तथा अपने विविध अधिकारों का स्वेच्छापूर्वक त्याग करता है। इससे व्यक्ति की अकर्मण्यता को संन्यास नहीं कहा जा सकता।

‘संन्यास’ शब्द के तीन अंग हैं— स, नी, आस। ‘स’ का अर्थ है ‘सब कुछ’, ‘नी’ का अर्थ है ‘नीचे’ तथा ‘आस’ का अर्थ है ‘दबाना’। सब कुछ अर्थात‍् काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। यानी इनमें से कोई भी तत्व व्यक्ति पर हावी न हो, व्यक्ति के नीचे दबा रहे। ये पंचविकार सर्वथा नष्ट नहीं होते, मन के भीतर छिपे रहते हैं तथा अवसर प्राप्त होते ही कोई न कोई विकार व्यक्ति पर हावी हो जाता है। शास्त्रों में ऋषियों द्वारा श्राप दिए जाने की अनेक घटनाएं उपलब्ध हैं। राम के धनुष तोड़ने पर ईशावतार परशुराम का क्रोध करना सर्वविदित है। क्रोध कहीं बाहर से नहीं आता, मन के भीतर ही छिपा हुआ होता है, जो मौका पाते ही शीश उठा लेता है। यही स्थिति अन्य विकारों की है। काम केवल किसी व्यक्ति के साथ शारीरिक सम्बंध बनाना ही नहीं है, किसी के प्रति इस प्रकार की कामना का मन में उदित होना भी काम है। कामशास्त्र अनुसार इन्द्रियों की विषय की ओर प्रवृत्ति काम है। काम स्वभाव बन जाता है तो कामवृत्ति का उदय होता है। कामेच्छा व्यक्ति को अपने अधीन कर लेती है तो व्यभिचार होता है, इसी प्रकार लोभ भी मन का स्वभाव है। ईश-प्राप्ति का लोभ भी लोभ ही है लेकिन इसको विकार नहीं माना जाता। कन्दरावासी त्यागी को भी अपनी कन्दरा से, अपने परिवेश से, मोह हो जाता है, जो संन्यासी को नहीं होना चाहिए। अहंकार भी मन में निहित विकारों में से एक है, जो यदाकदा मन के भीतर से उठकर, व्यवहार रूप में प्रकट हो जाता है। संसार त्याग चुका व्यक्ति भी किसी प्रकार की अवहेलना, अपमान या दुर्व्यवहार से आहत हो जाता है क्योंकि उसके अहंकार को चोट लगी होती है।

ऋषि व्यास ने गीता के पंचम अध्याय में संन्यास का वास्तविक अर्थ समझाया है। अर्जुन को ज्ञान देते हुए श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म में त्याग और त्याग में कर्म को संन्यास कहते हैं। निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात‍् मन, इन्द्रियों एवं शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग संन्यास है।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःख माप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधि गच्छति॥

साधारण भाषा में कहा जाए तो संन्यासी वह है जो कर्म से नहीं भागता, अपने सांसारिक कर्मों का निर्वाह करता है लेकिन मन या इन्द्रियों की किसी वृत्ति को अपने ऊपर आरोपित नहीं होने देता। संन्यासी यदि कर्म नहीं करेगा तो वह अपने पूर्व के कर्मबंधों को कैसे काटेगा। यह जीवन एकल जीवन नहीं है, जन्म-जन्मान्तरों की शृंखला की एक कड़ी है। पूर्व जन्म के कर्मों का भुगतान हर हाल में करना होता है। संन्यासी इन कर्मों का निष्पादन पूर्णतया निर्लिप्त भाव से करता है तथा सदैव सचेत रहता है कि नये कर्मबंध न बनाए जाएं। आत्मा जब तक कर्मबंधों से मुक्त नहीं होती, तब तक उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

कर्मों का निष्काम निष्पादन सरल कार्य नहीं है। इसमें सबसे बड़ी बाधा मन है। यही कारण है कि ऋषियों ने सदैव मन के वशीकरण पर बल दिया है। मन को वश करने का एकमात्र उपाय सजगता है। यदि आप अपने क्रोध के उदय होने के साथ ही क्रोध के प्रति सजग हो जाते हैं तो आप तुरन्त अपने क्रोध पर काबू पा लेंगे लेकिन अगर आप सजग-सचेत नहीं हैं तो क्रोध आपसे कोई अशोभनीय कार्य करा देगा।

आश्रमों में संन्यास को अन्तिम आश्रम इसलिए रखा गया है कि व्यक्ति इससे पूर्व के तीन आश्रमों में अपने सांसारिक कर्मों का भुगतान कर लेता है। ब्रह्मचर्य में वह अपने वीर्य की रक्षा करते हुए विद्या ग्रहण करता है, गृहस्थ में दैहिक अपेक्षाओं की पूर्ति करते हुए संतानोत्पत्ति का कर्तव्य निभाता है तथा वानप्रस्थ में वह अपनी प्रौढ़ संतान को स्वनिर्णयानुसार कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़कर ईशानुराग या अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है। वानप्रस्थी गृह-त्याग करके वनवासी हो जाता है ताकि प्रौढ़ संतान के कार्यकलाप में से अपनी रुचि हटा ले लेकिन वन में रहते हुए भी यदि संतान को उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है तो वह निर्लिप्त भाव से अपने अनुभव के आधार पर परामर्श दे देता है। लेकिन संतान के सांसारिक कार्य में अरुचि होने के कारण वह शारीरिक या मानासिक रूप से कार्य में भागीदारी नहीं करता। उदाहरणार्थ किसी वानप्रस्थी ने अपने बेटे की एक सांसारिक समस्या सुनी और उसे अपनी बुद्धि एवं अनुभव के आधार पर परामर्श दे दिया लेकिन बेटे के जाने के बाद भी यदि उसका मन उसी समस्या में उलझा रहता है, बेटे के अहित की आशंका उसे घेरे रहती है तो उसका वानप्रस्थ दिखावे का वानप्रस्थ होता है।

वास्तविक संन्यासी घरबार तथा संसार त्यागकर एकान्तवास में नहीं जाता अपितु संसार में रहते हुए, घर-परिवार के सुख-दुःख में भागीदारी करते हुए निष्काम भाव से अपने कर्म का निष्पादन करता है। कर्म में पूर्णतया निर्लिप्त रहने का नाम संन्यास है। मन में उठने वाले विचारों तथा विकारों को यदि दबाकर रखा जाए, उनको सिर न उठाने दिया जाए तो संन्यासी का कर्म निष्काम कर्म हो जाता है। संन्यासी जीवन के प्रत्येक क्षण को अन्तिम क्षण समझता है, इसलिए जागरूक रहकर कोई कर्मबंध नहीं बनाता है।

दरअसल, संन्यास जीवन के अन्तिम वर्षों में ही धारण नहीं किया जाना चाहिए अपितु प्रथमाश्रम से ही इसका अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिए। संन्यस्त होने का अभ्यास अतिशय मोहलिप्तता से सुरक्षा प्रदान करके जीवन को सहज बना देता है। समभाव एवं समदृष्टि से विपरीत स्थितियों तथा परस्पर विरोधी भावनाओं का सामना करने का अभ्यास ब्रह्मचर्य आश्रम से ही अारम्भ कर लिया जाए तो संन्यास की परम्परात्मक, अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते मन इतना सध चुका होता है कि उसे और अधिक साधने की आवश्यकता ही नहीं होगी। मन को साधना अपनी इच्छाओं, अपनी कामनाओं के साथ लड़ना है। इस लड़ाई को जीवन के संध्याकाल तक स्थगित करना इसलिए उचित नहीं है क्योंकि वृद्धावस्था में इसको पूर्णता अपेक्षित है, इसका अभ्यास नहीं। एक सूफ़ी कवि का कथन है :-

दर जवानी तौबा करदन शेवाए- पैगम्बरीस्त,

वक्ते पीरी गुर्गे-जालिम मीशवद परहेज़गार।

अर्थात‍् युवावस्था में अकरणीय कर्मों से बचना ईशदूतों के व्यवहार जैसा है अन्यथा बूढ़ा होने पर तो भयानक भेड़िया भी मांस खाना छोड़ देता है।

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