एक बार जब महर्षि कात्यायन नारद जी के पास पहुंचे तो उन्होंने सत्संग के दौरान नारद जी से पूछा, ‘देवर्षि! विभिन्न धर्म-शास्त्रों में आत्मकल्याण के लिए विभिन्न उपाय बताए गए हैं। जैसे जप, तप, त्याग, तपस्या, धारणा, समाधि, भगवन्नाम। इन उपायों में भगवान की भक्ति के लिए सबसे सरल उपाय आपकी दृष्टि में क्या है?’ देवर्षि नारद ने इसका उत्तर यह दिया, ‘मुनिवर! साधना, जप-तप आदि का एकमात्र उद्देश्य भगवद् कथा प्राप्त करना होता है। ज्ञान और भक्ति उसी को प्राप्त हो सकती है, जिसका आचरण पवित्र है। संयम व मर्यादा का पालन करने से ही मानव को सद्बुद्धि प्राप्त होती है। जिसे सद्बुद्धि प्राप्त हो जाती है, वह अपने तमाम अर्जित साधनों, शरीर व धन को दूसरों की सेवा व सहायता में लगाता है। भगवान उसी की सहायता करते हैं, जिसके हृदय में प्रेम, करुणा, सेवा व परोपकार के भाव हों तथा उन भावों के माध्यम से, सहजता से आत्मकल्याण किया जा सकता है।’ देवर्षि नारद के ऐसा कहने पर मुनि कात्यायन को जिज्ञासा का समाधान मिल गया।
प्रस्तुति : राजेश कुमार चौहान