एक लोहार बाण बनाने की कला में अत्यंत निपुण था। उसके बने हुए बाणों को जो भी देखता, तारीफ किये बिना नहीं रह सकता था। एक दिन जब वह अपने बाण बनाने में तल्लीन था, उसकी कर्मशाला के आगे से एक सम्पन्न व्यक्ति की बारात गाजे-बाजे और धूमधाम के साथ निकली। किन्तु, उसने वह शोर-शराबा सुना ही नहीं, वह बाण बनाने में लगा रहा। थोड़ी देर बाद उसकी कर्मशाला के सामने से दत्तात्रेय ऋषि निकले। तब तक वह अपना बाण बना चुका था और जिस तरह समाधिलीन रहने के बाद कोई साधु अंगड़ाई लेता है, उसी तरह अंगडाई ले रहा था। उससे दत्तात्रेय ने पूछा, ‘बन्धु! आपकी कर्मशाला के आगे से एक धनी व्यक्ति की बारात गई थी, उसे गये कितना समय बीत गया?’ ‘महाराज! मैं अपना बाण बनाने में जुटा था, इसलिए मैंने बारात को नहीं देखा, क्षमा करें।’ लुहार ने कहा। दत्तात्रेय चौंके ‘भाई, जब आप यहां मौजूद थे तो ढोल-तासों व तुरही आदि का शोर तो आपने सुना ही होगा?’ ‘महाराज! मेरा धंधा ही मेरे लिए प्रभु-पूजा, अर्चना, वन्दना सब कुछ है। मैं जब अपने काम जुटता हूं, तो उसी का हो जाता हूं। फिर मुझे अपने शरीर की सुध भी नहीं रहती। बारात के विषय में क्या बता सकता हूं।’ लुहार ने सरल वाणी में कहा। यह बात सुनकर दत्तात्रेय ऋषि ने उस लोहार के चरण स्पर्श कर लिये और बोले, ‘आज से आप मेरे गुरु हुए, मैं भी अपनी साधना में इसी भांति डूबने की चेष्टा करूंगा।’ प्रस्तुति : किरणपाल बुम्बक
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।