विजय सिंगल
माना जाता है कि मनुष्य की उसकी अपनी वास्तविक प्रकृति के बारे में जागरूकता अनंत जन्मों में एकत्रित अज्ञानता से ढकी रहती है। आध्यात्मिक ज्ञान को संचित करके कोई भी व्यक्ति इस अंधेरे के आवरण को दूर कर सकता है। ऐसा ज्ञान कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भगवद्गीता के श्लोक संख्या 4.34 में दिया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘अपने अहंकार को त्याग कर तुम तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाओ, भली प्रकार से उनकी सेवा करो और निष्कपट भाव से तत्वज्ञान के बारे में उनसे सार्थक प्रश्न करो। परमात्मतत्व को भली भांति जानने वाले महापुरुष तुम्हें उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे।’
जब तक व्यक्ति स्वयं अपने भीतर के प्रकाश को नहीं देख लेता, तब तक उसे आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इसीलिए सुझाव दिया गया है कि साधक को एक ऐसे आध्यात्मिक मार्गदर्शक के पास जाना चाहिए जिसने न केवल सैद्धांतिक रूप से सत्य को जाना है (तत्व-ज्ञानी), बल्कि जिसने स्वयं इसका अनुभव किया है (तत्व-दर्शी)। जब वह सच्ची सेवा की भावना और सार्थक प्रश्न
पूछने के इरादे के साथ एक प्रबुद्ध आत्मा तक पहुंचता है, तो ऐसा शिक्षक उसे जीवन के गहरे अर्थ समझने में मदद करता है।
एक आध्यात्मिक गुरु का कार्य अन्य शिक्षकों के कार्य से काफी भिन्न होता है। जहां किसी भी अन्य विषय का शिक्षक अपने विद्यार्थियों को ज्ञान की उस शाखा में ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है, वहीं एक आध्यात्मिक गुुरु का लक्ष्य होता है अपने शिष्य के जीवन में मूलभूत परिवर्तन लाना। सत्य सदा मनुष्य के भीतर ही होता है। परन्तु भौतिक संसार में उलझे रहने के कारण मनुष्य इस सत्य को देख नहीं पाता।
आध्यात्मिक दासता स्वीकार्य नहीं
भगवद्गीता आध्यात्मिक दासता को स्वीकार नहीं करती। अपने गुरु का सम्मान करना चाहिए, परन्तु उसके सामने पूर्ण रूप से समर्पण करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। गीता ने श्रद्धेय सेवा को प्रासंगिक प्रश्न पूछने के अधिकार और समीक्षा की स्वतंत्रता के साथ जोड़ा है। इसने शिष्य और उसके शिक्षक (अर्जुन-कृष्ण के संवाद के रूप में) के बीच दिल से दिल की बातचीत की मिसाल कायम की है। अत: शिष्य को आंख मूंद कर गुरु का अनुसरण करने के बजाय उससे अर्थपूर्ण प्रश्न पूछने चाहिए। सभी शंकाओं का निवारण होना चाहिए। बुद्धि को संतुष्ट होना चाहिए। ज्ञान की यह खोज तब तक जारी रहनी चाहिए, जब तक कि पूर्णता प्राप्त न हो जाए। जिन महान आत्माओं ने सत्य को जान लिया है, उनका कर्तव्य है कि वह दूसरों की उनके ज्ञान-प्राप्ति के प्रयास में सहायता करें। इसी लिए प्राचीन भारत में गुरु-शिष्य की महान परम्परा स्थापित हुई। परन्तु दुर्भाग्य से इन दिनों कुछ बेईमान तत्वों द्वारा इस पवित्र परम्परा का घोर दुरुपयोग किया जा रहा है। ऐसे धोखेबाज स्वयं को आत्मबोध से युक्त होने का दावा करते हैं, और तत्काल निर्वाण की दुकानें खोल कर बैठ जाते हैं। स्वयं को परमात्मा का एजेंट बताने वाले ये कपटी पुरुष समाज के विभिन्न वर्गों की भावनात्मक कमजोरियों एवं व्यक्तियों के आन्तरिक डर का फायदा उठाते हुए अपनी खुद की वित्तीय और राजनीतिक जागीरें स्थापित कर लेते हैं। गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान को अत्यधिक महत्व दिया जाना चाहिए। परन्तु इसे बिना सोचे समझे लागू नहीं किया जा सकता। शिष्य को चाहिये कि गुरु से प्राप्त ज्ञान पर चिन्तन करे और अपने लिए सत्य की खोज करे। मनुष्य की अवधारणाएं उसकी अपनी होनी चाहिए, न कि किसी और के द्वारा थोपी हुई। इतना ही नहीं, उसे उन विचारों और विश्वासों के लिए तर्कसंगत आधार और अनुभवात्मक साक्ष्यों की तलाश भी करनी चाहिए।
… तब जरूरी हैं आध्यात्मिक गुरु
अक्सर एक प्रश्न पूछा जाता है कि आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता क्यों है, जबकि आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में जानकारी इतनी अधिक मात्रा में पहले से ही उपलब्ध है। एक संबंधित प्रश्न यह भी है कि अपने लिए एक सही मार्गदर्शक का चुनाव कैसे किया जाए? इन प्रश्नों का उत्तर किसी व्यक्ति के उसके अपने जीवन के प्रति दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। यदि कोई मननशील है और जीवन के सत्य को समझता है, और आत्म-अनुशासित है; उसे किसी गुरु की क्या अवश्यकता है। परन्तु यदि कोई अपनी समझ के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं है और अपने ऊपर संयम नहीं रख सकता है; तब उसे प्रेरित करने, उसका मार्गदर्शन करने और समय-समय पर उसे सही करने के लिए एक सरपरस्त की आवश्यकता हो सकती है। मार्गदर्शक का चुनाव भी व्यक्तिगत निर्णय का विषय है। किसी आध्यात्मिक शिक्षक की शिक्षाओं, निजी आचरण और अन्य गतिविधियों के बारे में जानकारी एकत्र और सत्यापित करने के बाद; कोई भी व्यक्ति एक विशेष गुरु का अनुसरण करने या न करने के बारे में अपना एक सोचा-समझा फैसला कर सकता है। ऐसा चुनाव करते समय व्यक्ति को अपनी आध्यात्मिक जरूरतों को भी ध्यान में रखना चाहिए। अन्त में, किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक यात्रा एक अत्यन्त सुखद अनुभव हो सकती है, यदि वह सत्य को समझने और अनुभव करने के लिए उत्सुक है; और उसका गुरु उसके साथ अपनी बुद्धि साझा करने को तैयार है।