
डॉ. मोनिका शर्मा
आसक्त मन सदा शांति की तलाश में ही रहता है। इच्छाओं का घेरा मन को व्याकुल किए रहता है। यही वजह है कि धार्मिक आख्यानों से लेकर व्यावहारिक जीवन तक, आसक्ति को जीवन में दुख का मूल कारण माना गया है। असल में अनुरक्ति या लगाव के मूल में किसी न किसी का प्रकार डर छिपा होता है। सम्बन्धों को खो देने का भय, स्वास्थ्य बिगड़ने का भय या संपत्ति के घटने का भय। तभी तो लिप्तता की लगन चाहे जिस वस्तु या व्यक्ति से लगी हो, मन को अशांत ही रखती है। ऐसे में अनासक्ति का भाव हर मोर्चे पर मन को सुकून की सौगात देने वाला साबित होता है।
आत्मसमीक्षा का अवसर
स्वयं की समीक्षा के लिए व्यर्थ की चेष्टाओं से बचना सबसे पहला कदम है। सब कुछ चाहते-सहेजते हुए अपने मनोभावों का विश्लेषण नहीं किया जा सकता है। अनुरक्ति का भाव संतुलित सोच में सबसे बड़ी बाधा बनता है। हर विषय में मोह का बंधन सब कुछ मन मुताबिक ही चाहता है। ऐसे में स्वयं का आकलन करने के लिए भी अनासक्ति का भाव जरूरी है। मन में दर्पण में झांकने के बाहरी जीवन से जुड़े बंधनों के प्रति आसक्त बने रहने के भाव से मुक्ति आवश्यक है। आत्मनिरीक्षण मनोविज्ञान से जुड़ी एक परंपरागत विधि है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध दार्शनिक लॉक के अनुसार मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण करना आत्मनिरीक्षण कहलाता है। निस्संदेह, सेल्फ ऑब्जर्वेशन यानी अपने आप में देखना अन्य चीजों की आसक्ति के होते हुए संभव नहीं। ऐसे में मन को भी ठहराव नहीं मिलता।
स्वनियंत्रण की सौगात
गीता में भी कहा गया है कि ‘जो व्यक्ति सर्वत्र स्नेह रहित होते हैं और अनुकूल की प्राप्ति से न तो प्रसन्न होते हैं और न ही प्रतिकूल की प्राप्ति होने पर उसका द्वेष करते हैं, उनकी बुद्धि स्थिर है।’ असल में स्वयं पर नियंत्रण की यह स्थिति ही असली शक्ति है। अनासक्ति का भाव स्वनियंत्रण के लिए सबसे जरूरी है। बाहरी बातों-हालातों से मन का डिगना ही स्वनियंत्रण की सौगात दे सकता है। वस्तुएं हों या विचार, इस बुनियादी पृथकता का होना ही मन के पलने वाली परेशानियों का कारण बनता है। इसकी वजह यह है कि स्वनियंत्रण की कमी वाला हर इंसान अपने जीवन से जुड़े हर पहलू को नियंत्रित करने के प्रयास में लगा रहता है। जबकि विवेक और सजगता लिए आत्म-संयम ज्ञान का मूल कहा जाता है। हर भटकाव से परे यह अपने भीतर झांकने की ही नहीं अपने मन को साधने की मनःस्थिति भी बनाता है। इससे मिलने वाला संतोष अनमोल अनुभूति होता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि ‘सफलता दूसरों के द्वारा तय किया गया एक उपाय है। संतोष स्वयं आपके द्वारा तय किया गया एक उपाय है।’ स्वनियंत्रण से उपजा यह संतोष सचमुच सुकूनदायी होता है।
मन की शांति
आसक्ति भले क्षणिक हो या दीर्घकालीन, मन को अशांत ही करती है। आसक्त मन को जीवन के किसी भी पहलू पर कुछ घटने-बढ़ने का भय पल भर को चैन नहीं लेने देता। नश्वरता के विचार की स्वीकार्यता ही नहीं आ पाती। कुछ भी मन मुताबिक न होने का डर सताता रहता है। कुछ अनचाहा घटित हो जाने की पीड़ा, हरदम मन-मस्तिष्क को घेरे रहती है। आसक्ति का मतलब ही है किसी विषय, वस्तु, व्यक्ति, मनोभाव या परिस्थिति के प्रति विशेष रुचि रखना। इंसान के चिंतन और चाहनाओं का कुछ विशेष बातों और हालातों से गहराई से जुड़ जाना। ऐसे में कुछ बदलने की आशंका भर ही मन में क्रोध और डर उपजा देती है। ऐसे अशांति ही मिलती है। जबकि आसक्ति रहित इंसान विपरीत परिस्थिति में भी सुखी और संयत रहता है। वक्त के साथ कुछ बदलने, खोने या दूर होने के प्रति स्वीकार्यता आती है। सहज मनोदशा के संग जीने का यह अंदाज़ हर हाल में मन को सुकून की सौगात देता है।
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