नवरात्र। नव संवत्सर। नव उल्लास। शक्ति संजोने का दौर। साधना करने का समय जो महामारी के इस दौर में आत्मबल दे। आत्मज्ञान दे। मातृशक्ति की उपासना महज रस्मी न हो। महिलाओं का सम्मान हमेशा हो। सुखद और सृजनशील परिवेश बनाने के समय बेशक अभी बड़ी कठिनाइयां नजर आ रही हैं, लेकिन चारों ओर प्राकृतिक नव्यता हमें आशावान बने रहने का संदेश दे रही है। ऊर्जावान बने रहने का संदेश दे रही है। देवी के नौ रूपों की पूजा-अर्चना करते समय हमें अपने साथ-साथ समाज की भलाई की कामना करनी होगी, इसके जतन करने होंगे। सकारात्मक सोच और आध्यात्मिक जुड़ाव के इसी संगम के बारे में बता रही हैं मोनिका शर्मा
हमारी सांस्कृतिक और परंपरागत जीवनशैली में चेतना और मानसिक बल को बहुत महत्व दिया गया है| यही वजह है कि अधिकतर आध्यात्मिक उत्सव-अनुष्ठान भी संस्कृति और परम्परा के इस भाव को लिए होते हैं| उनके उत्सवीय रूप के साथ ही एक जीवन दर्शन भी जुड़ा होता है| सामुदायिक उन्नति और व्यक्तिगत सुधार की पावन सोच और प्रकृति से साथ सामंजस्य के संदेश समाहित होते हैं| इन संदेशों को समझने और इन्हें अमल में लाने की जरूरत होती है। नवरात्र पर्व के नौ दिन भी ऊर्जा, उत्साह और आराधना के ऐसे ही सुंदर अवसर होते हैं| संयम के साथ हमें नयी ऊर्जा संचार करने का उत्साह बढ़ाना होता है। यह नए वर्ष की शुरुआत का भी समय होता है| नव-संवत्सर और नवरात्र का यह समय हर ओर एक सुखद और सृजनशील परिवेश बना देता है|
सीख देता प्रकृति का बदलता रूप
कितना सुखद है कि वासंतिक नवरात्र और नववर्ष का स्वागत स्वयं प्रकृति भी नया रूप धरकर करती है। चारों ओर नजर दौड़ाइये प्रकृति अपनी नयी रंगत में नजर आती है। इस समय पूरी सृष्टि नए साल का उत्सव मनाती नजर आती है। एक अकेले भारत में ही ऐसा है कि नए साल की शुरुआत को जानने के लिए कोई कैलेंडर नहीं चाहिए। प्रकृति मानो खुद ही संदेश दे देती है कि नव्यता आ गयी है। धरती मां स्वयं नवसृजन, नवशृंगार किए पल्लवित-पुष्पित होते पेड़-पौधों से सुसज्जित हो जाती है। हवा में नयी सुवास और मादकता फैल जाती है| पत्ता-पत्ता यह सन्देश देता है कि नववर्ष आ गया है| खिली-खिली प्रकृति की यह सुंदर आभा बेहद मंगलमय लगती है जो हमारे मन में भी मंगलकारी सोच की उजास और उल्लास भर देती है| इस रुत में सूर्योदय के समय पक्षियों के मधुर कलरव और खिले-खिले फूलों की बेला में नया साल दस्तक देता है| वसंत के मनमोहक सौंदर्य की आभा हर तरफ खिल उठती है| घने जंगलों में पलाश और सेमल के चटक फूल खिल जाते हैं| हर रंग बोलता हुआ लगता है। गेहूं की पकी बालियों की सरसराहट में समृद्धि दस्तक देती प्रतीत होती है| पेड़-पौधे पुराने पत्तों को छोड़ नव पल्लव धारण कर रहे होते हैं| इतना ही नहीं नव वर्ष मनाने की परम्परायें भी ऐसी बनी हुई हैं लोग स्वयं प्रकृति से जुड़ जाते हैं| इस दिन नदियों में स्नान करते हैं| घर, मन और शरीर की स्वच्छता को महत्व दिया जाता है| तामसी चीज़ों से दूरी बनाने का प्रण लिया जाता है| यही वजह है कि नववर्ष पर सहज मानवीय भावों को जीने और प्रकृति से जुड़ाव रखने की सीख मिलती है| कुदरत से जुड़ने का यह भाव सिखाता है कि पतझड़ के बाद नवजीवन की पदचाप भी सुनाई देती है| कोरोना के संकट काल की अनिश्चितता में भी हमने देखा है कि प्रकृति के रंग समय और मौसम के मुताबिक़ खिलते ही हैं| ठीक वैसे ही जैसे पीड़ादायी समय के बाद बेहतर वक्त भी जरूर आता है|
संस्कृति रंगों से रंगा नववर्ष
माना जाता है कि चैत्र के महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सृष्टि का आरंभ हुआ था जो कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही शुरू होता है| इस दिन ग्रह और नक्षत्र में परिवर्तन और हिन्दी महीने की शुरुआत भी होती है| नवसंवत्सर शुरू होता है| पंजाब समेत उत्तर भारत के कई इलाकों में बैसाखी का उल्लसयमी पर्व भी इसी दौरान मनाया जाता है। इस दिन कन्नड़ नववर्ष उगादी, सिंधी उत्सव चेटी चंड, और गुड़ी पड़वा भी मनाया जाता है। गुड़ी पडवा के दिन हिन्दू पंचांग का शुभारम्भ होता है| आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी इसे उगादी के नाम से मनाते हैं| इस दिन वहां छह तरह की (इमली, नीम, गुड़, हरी मिर्च, नमक और कच्चा आम) चीज़ों के मिश्रण को खाने का रिवाज है| मान्यता है कि ये छह स्वाद विभिन्न भावनाओं को दर्शाते हैं और इन्हें साथ खाने से सब भावनाओं में भी मेल बना रहता है| महाराष्ट्र में भी यह त्योहार गुड़ी पड़वा के रूप में खूब धूमधाम से मनाया जाता है| इस दिन पूरे उत्साह के साथ रीति रिवाज और सामाजिक संस्कारों का निर्वहन किया जाता है| सभी एक दूजे को नए साल की बधाई देते हैं| गुड़ी पड़वा महाराष्ट्र में रबी की फसल की कटाई के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इस दिन घर की छत, मुख्य दरवाज़े या खिड़कियों पर गुड़ी लगाने का रिवाज है| इसमें बांस (दंड) के ऊपर चांदी, तांबे या पीतल का उलटा कलश रखकर उसे सुन्दर कपड़े से सजाया जाता है। गुड़ी के शृंगार में नीम की पत्तियां, आम की डंठल और लाल फूल भी काम में लेते हैं| गुड़ी को धर्म-ध्वज भी कहा जाता है| पारम्परिक ढंग से सजी गुड़ी के हर भाग के विशेष मायने हैं| उल्टा पात्र सिर को दर्शाता है और दण्ड मेरु-दंड यानी कि रीढ़ का प्रतीक है| मान्यता है कि गुड़ी लगाने से घर में समृद्धि आती है और बुरी शक्ति का नाश होता है। इस दिन श्रीखण्ड, पूरन पोली और खीर जैसे पारंपरिक पकवान भी बनाये जाते हैं| किसान इस मंगलमय दिन पर अच्छी फसल की कामना के लिए खेतों को जोतते हैं|
महज प्रतीक नहीं मां शक्ति
दुर्भाग्यपूर्ण है कि आपदा के इस दौर में भी महिलाओं और मासूम बेटियों के साथ शोषण और दुर्व्यवहार की घटनाओं के आंकड़े कम नहीं हुए हैं| कोरोना संकट के दौर में घरेलू हिंसा के आंकड़े भी बढ़े ही हैं| सार्वजनिक स्थलों पर छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार की स्थितियां भी जस की तस हैं| ऐसे में वैश्विक संकट से जूझ रहे हमारे समाज के समक्ष यह सवाल भी है कि चाहे जैसे भी हालात हों, स्त्रियों के प्रति सोच और व्यवहार क्यों नहीं बदलता? पंडालों में मातृशक्ति की उपासना और परिवार के आंगन में ही असुरक्षा का माहौल, घर-घर कन्या पूजन की रीत का निर्वहन और अपनी ही गली में किसी मासूम के साथ दुर्व्यवहार| ऐसा क्यों? हम इस पर्व को महज प्रतीकभर क्यों मानकर चलें। नारी शक्ति का सम्मान तो सदैव होना चाहिए। नवरात्र का पर्व तो नारी के सम्मान, सामर्थ्य और स्वाभिमान की सार्वजनिक स्वीकृति का ही पर्व है। यह उत्सव है, नारी की मातृशक्ति की उपासना को सबसे ऊपर मानने का| उस मान को सर्वोच्च दर्ज़ा देने का जो एक स्त्री को जीवनदात्री के रूप में मिलता है। ऐसे में जरूरी है कि मां दुर्गा के पूजन का उत्सव रिवायत भर बनकर ना रह जाए| देवी मां को प्रतीक बनाकर पूजने भर से सभ्य समाज नहीं बनाया जा सकता| व्यावहारिक रूप शक्ति पूजन के मायने समझने भी जरूरी हैं| मातृशक्ति की उपासना और कन्या पूजन की सार्थकता तभी है, जब हर घर के आंगन की रौनक कही जाने वाली बेटियों को सम्मान और सुरक्षा की शीतल छाया मिले| जरूरत, मां भगवती को प्रतीक बनाकर पूजने भर की नहीं बल्कि घर, परिवार, समाज और देश में बिटियों को मन से शक्तिस्वरूपा मानने, उनके अस्तित्व को सहेजने और लाडलियों को सलामती के साथ जीने का इंसानी हक़ देने की है| जिन बेटियों को मंच मिला, उन्होंने तो शिखर छुए ही, अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने परेशानियों से जूझते हुए भी घर, समाज और देश का नाम रोशन किया।
चेतना संपन्न बनें महिलाएं
महाशक्ति देवी भगवती की उपासना के ये नौ दिन परंपरा के निर्वहन के गहरे अर्थ लिए हैं| साथ ही इनसे कई व्यावहारिक पहलू भी जुड़े हैं| माना जाता है कि देवी दुर्गा मन-जीवन की जड़ता को दूर करती हैं। हमें चेतनासंपन्न बनाती हैं| हमारे यहां महिलाओं के सामने घर के भीतर और बाहर जितनी भी परेशानियां आती हैं, उनकी एक बड़ी वजह उनका अपने ही अस्तितव के प्रति जागरूक ना होना है। हर अच्छे बुरे व्यवहार के प्रति स्वीकार्यता का भाव उनके चेतन अस्तित्व पर ही सवाल खड़े करता है। आज के दौर में जरूरी है कि महिलाएं जड़तावादी और रूढ़िवादी बंधनों से खुद को मुक्त करें| विवेक रूपी अस्त्र का प्रयोग कर अपने जाग्रत अस्तित्व को समाज के सामने रखें। यह चेतना स्त्री होने के नाते अपने अधिकारों की जानकारी रखने और नागरिक होने के नाते अपने कर्तव्यों से भी जुड़ी है। मौजूदा दौर में नारी शक्ति की जीत को सुनिश्चित करने के लिए आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनना भी आवश्यक है। स्त्रियों को प्रकृति ने सहज-सरल ही नहीं बनाया जरूरत पड़ने पर हर दुष्टता से लड़ जाने का माद्दा भी दिया है| मां दुर्गा एक स्त्री के रूप में सौम्य और कोमलांगी हैं पर बुराइयों का प्रतिकार और आसुरी शक्तियों का नाश करने के लिए वे प्रचंड रूप भी धरती हैं। इसीलिए मातृशक्ति की उपासना के इस पर्व पर महिलाएं भी अंर्तमन की शक्ति को साधें और जागरूक बनें। एक चेतनासंपन्न स्त्री ही सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सरोकारों के प्रति जागरूक हो सकती है। समाज में फैली कुप्रथाओं के खिलाफ खड़ी होने का संबल जुटा सकती है। यही स्त्री सशक्तीकरण के दिशा में पहला कदम है।
जुटाना होगा मानसिक बल
बीते एक साल के ठहराव ने तन को ही नहीं मन को भी थका दिया है| वैश्विक स्तर पर दस्तक देने वाली इस महामारी ने जीवन के हर पहलू को गहराई से प्राभवित किया है| यही वजह है कि विचारों में उलझन और व्यवहार में अनिश्चितता के भय से उपजी समस्याएं खूब देखने को मिल रही हैं| अवसाद, तनाव और व्यग्रता के आंकड़े बढ़ रहे हैं| बढ़ती सामाजिक दूरियों और अकेलेपन के इस तकलीफदेह समय में भी मन में उत्साह बनाये रखना होगा| मस्तिष्क को बचाव के उपायों के प्रति सजग रखना होगा| व्यवहार में संवेदनाओं को जगह देनी होगी| शक्ति और भक्ति के इन नौ दिनों में नयी ऊर्जा का संचार करने के हर पहलू अपर मानवीय भावों को जगह देनी होगी| खुद से ही जुड़कर मनोबल बनाये रखना होगा| यह समझना होगा कि सकारात्मक सोच और आध्यात्मिक जुड़ाव के बल पर नवसंवत्सर और नवरात्र का यह अवसर मन में उल्लास और चेतना जगाने का सात्विक समय बन सकता है|
शक्ति पूजा का विशेष महत्व
चैत्र प्रतिपदा को ही वासंतिक नवरात्र भी शुरू होते हैं| इन नौ दिनों में नव दुर्गा की आराधना की जाती है| इसीलिए इस समय शक्ति पूजा का भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि प्रकृति के इस नवसृजन के समय ही नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई थी। घरों में कलश स्थापना होती है, वंदनवार लगाई जाती हैं| छतों पर पताकाएं फहराई जाती हैं| पूरे घर को मंदिर सरीखा बनाया जाता है। उत्साह का माहाौल बनता है। देश के अनेक हिस्सों में इस दिन आंगन में रंगोली उकेरने का रिवाज है| ऐसा लगता है मानो प्रकृति से लेकर इंसान तक नव संवत्सर की अगवानी के उल्लास में खो जाते हैं| इस मौसम में हर मन को नयी ऊर्जा मिलती है, क्योंकि पूरी प्रकृति ही ऊर्जामयी हो जाती है| वातावरण में एक नया उल्लास और हर्ष छाया होता है| ऐसा लगता है जैसे सारी धरती खुशबू से सराबोर हो गई है। पेड़-पौधों पर खिले फूल और मंजरियां हर किसी के मन को आनंदित कर देते हैं| नववर्ष का यह परिवेश हर तरह से आत्मबल को बढ़ाने और उत्साह जगाने वाला माहौल बनाता है जो सकारात्मक ऊर्जा के उपार्जन का अवसर प्रतीत होता है|
जीवटता का संदेश
वासंतिक नवरात्र, मां दुर्गा की आराधना और धरती पर हर ओर फैले नयेपन और उल्लास का उत्सव हैं| नव संवत्सर के इस मौसमी बदलाव के समय प्रकृति का पोर पोर नव सृजन का साक्षी बनता है| ऐसे में शक्ति को साधने का उत्सव नवरात्र भी हमारे मन जीवन को नयी ऊर्जा, नया उत्साह देने का अवसर है। अपनी समस्त ऊर्जा का समर्पण कर मां दुर्गा से यह आह्वान करने का कि वह नयी शक्ति और सोच का संचार करे। यह एक ऐसा महापर्व है जो हमें आस्था और विश्वास के ज़रिए अपनी ही असीम शक्तियों से परिचय करवाने का माध्यम भी बनता है। यों तो मां शक्ति की उपासना, हर दौर में मन का सम्बल जुटाने का माध्यम बनती है पर आपदा के इस काल में ये नौ दिन हमारी भीतरी शक्ति को साधने का मार्ग सुझा सकते हैं| बीते एक साल की संघर्षपूर्ण स्थितियों के बाद भी फिलहाल कोरोना महामारी से जूझते रहने की कोई डेडलाइन नहीं दिख रही है पर इससे जूझते हुए अपनी हिम्मत को साधने के प्रयास इस लड़ाई को आसान बना सकते हैं| संकटकाल में भी मन मस्तिष्क को स्थिर रख सकते हैं| मां की उपासना का यह पर्व मानसिक बल जुटाने का ऐसा ही सात्विक अवसर है|