स्वामी रामतीर्थ वेदांत दर्शन के अनुयायी एवं तेजोमय संन्यासी थे। एक बार अमेरिका प्रवास के दौरान स्वामी रामतीर्थ ने व्याख्यान के दौरान श्रोताओं को एक कहानी सुनाई। एक अध्यापक ने अपने तीन छात्रों, जिनमें एक हिंदू, दूसरा मुस्लिम और तीसरा ईसाई था, को दस रुपये देकर कहा- इसको आपस में बराबर-बराबर बांट लो। छात्रों ने तय किया कि बाज़ार से दस रुपये का कोई फल लेकर तीन हिस्सों में बराबर बांट लेंगे। कौन-सा फल लिया जाए, इस पर तीनों में विवाद हो गया। हिंदू छात्र ने कहा- मैं तो हदवाना लूंगा। मुस्लिम छात्र ने तरबूज खरीदने की ज़िद की, जबकि अंग्रेज छात्र वाटरमिलन खरीदने पर अड़ गया। तीनों एक-दूसरे की भाषाएं नहीं जानते थे। तभी वहां से गुजरते एक व्यक्ति ने उन तीनों के बीच इस बहस को सुना। वह तीनों भाषाएं जनता था। उसने कहा- लाओ मुझे पैसे दो, मैं तुम्हारी समस्या हल कर दूंगा। वह व्यक्ति दस रुपये का बड़ा-सा तरबूज खरीद लाया। उस तरबूज को तीन हिस्सों में बराबर काट कर तीनों में बांट दिया। तीनों छात्र अपनी मनपसंद चीज पाकर बहुत खुश हुए। यहां नाम जरूर अलग-अलग थे, परंतु बोध एक ही वस्तु का होता है। यही बात धर्म और आध्यात्मिक विश्वासों में भी है। ईश्वर एक ही है, नाम अनेक हैं। हर धर्मावलंबी अपने को ही सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को हेय दृष्टि से देखता है। यही मानसिकता झगड़ों का कारण बनती है। नाम के परदे को हटाकर भीतरी तत्व को देखो तो कोई अंतर नहीं मिलेगा।
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा