उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में स्वामी विवेकानंद ने अमेरिकी प्रवास के दौरान भारतीय दर्शन, संस्कृति व आध्यात्मिकता का परचम लहराया। शिकागो संबोधन के बाद तो पश्चिमी जगत उनका मुरीद हो गया था। स्वामी जी पश्चिम में रहे लेकिन पश्चिमी जनजीवन की दुर्बलताएं उन्हें छू न सकी। उन्होंने पश्चिम की भौतिक तरक्की व व्यक्तिपरक विकास को भी देखा। जब स्वामी विवेकानंद भारत लौटे तो पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि पश्चिमी चकाचौंध के बाद भारत आपको कैसा लगता है? स्वामी जी मुस्कराये और बोले- जब मैं भारत से अमेरिका गया तो मैं भारत को हरदम मातृभूमि के रूप में याद करता था। फिर मैंने पश्चिमी जगत का उपभोक्तावाद, तृष्णाएं, जीवन में अराजकता, लोभ व मर्यादारहित जीवन देखा तो पाया कि भारत महज मेरी मातृभूमि ही नहीं है बल्कि दिव्यता की भूमि है। समता, ममता और प्रकृति का सहचर जीवन हमें पश्चिम से श्रेष्ठ बनाता है। समृद्ध आध्यात्मिक विरासत हमें विशिष्टता प्रदान करती है, जिसके समान देश में मुझे पश्चिमी जगत में नजर नहीं आता। यही भारत भूमि की दिव्यता का आधार भी है।
प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा