
विजय सिंघल
आनन्द मानव जीवन का सार्वभौमिक लक्ष्य है। प्राचीन काल से ही मनुष्य प्रसन्नता की तलाश में है। लेकिन खुशी मनुष्य को आसानी से नहीं मिलती। जितना ही व्यक्ति इसके पीछे दौड़ता है, उतना ही वह उसको चकमा देती है। भगवद्गीता में आनन्द के विषय में विस्तृत रूप से चर्चा की गई है, और व्यापक कल्याण का एक स्पष्ट संदेश दिया गया है। श्रीकृष्ण ने अपने संवाद की शुरुआत में ही इस बात पर बल दिया है कि मनुष्य के जीवन में शोक का कोई स्थान नहीं है; क्योंकि मनुष्य की मूल प्रकृति है आत्मा, जो कि अविनाशी और अमर है तथा किसी भी प्रकार के दुःख से परे है।
भौतिक प्रकृति के तीन भेदों (अर्थात् गुणों) के अनुरूप आनन्द या सुख भी तीन प्रकार के कहे गए हैं। आत्मा के आत्मसात् ज्ञान से प्राप्त हुए सुख को अच्छाई के गुण वाला (अर्थात् सात्विक सुख) कहा जाता है। ऐसे आनन्द के परिणामस्वरूप सभी दुःखों का अंत हो जाता है। ऐसे सुख लंबे आध्यात्मिक अभ्यासों के बाद प्राप्त होते हैं। इन्द्रियों के अपने विषयों से सम्पर्क द्वारा उत्पन्न होने वाले सुख को रजोगुण वाला (राजसिक सुख) कहा जाता है। ऐसा सुख पहले तो अमृत जैसा प्रतीत होता है, लेकिन उसका अंतिम परिणाम विष के समान होता है। और वह जो शुरू से अंत तक आत्मा को भ्रांत करने वाला है; ऐसा सुख अज्ञानता के गुण वाला (अर्थात् तामसिक सुख) कहा जाता है।
इस प्रकार, खुशी की किस्में गुणों के भेद के अनुसार परिभाषित की गई हैं। इन्द्रियों की संतुष्टि से जो सुख मिलता है उसको तामसिक सुख कहा जाता है। इस प्रकार के क्षणिक सुख व्यक्ति को प्रमाद की ओर ले जाते हैं तथा आत्मा को अज्ञान के अंधेरे में धकेल देते हैं। ऐसे सुखों में आसक्त रहने वाला तामसिक व्यक्ति जीवन भर बुरे कर्मों से बंधा रहता है।
एक राजसिक व्यक्ति अपने धन और सत्ता की शक्ति तथा कीर्ति से सुख पाता है। ऐसी खुशी शुरू में बहुत आकर्षक और मनभावन लगती है, क्योंकि यह विलास और स्वामित्व का गौरव देती है; परन्तु अंत में यह दुख का कारण साबित होती है, क्योंकि वह कभी न पूरी होने वाली अत्यधिक इच्छाओं को जन्म देती है। इस प्रकार, भौतिक सुख अल्पकालिक है।
आध्यात्मिक अभ्यास आरंभ में कष्टदायक प्रतीत होते हैं, क्योंकि ये बहुत संयम और अनुशासन की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन अंततः वे सांसारिक दुखों के पार पहुंचा देते हैं। सात्विक सुख व्यक्ति के अपने मन की शान्ति से उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति भौतिक सुखों की चिन्ता छोड़ देता है, तब वह अपने ही भीतर वो आनन्द पाता है जो आत्मा में हमेशा स्थित होता है। ऐसा आंतरिक सुख चिरकालिक होता है। ऐसा प्रसन्नचित्त व्यक्ति किसी भी स्थिति में अविचल रहता है।
ये तीन प्रकार के सुख एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। बल्कि सभी प्रकार के सुख मिलकर ही किसी व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाते हैं। जीवन में आनन्द की ओर ले जाने वाले दो मार्ग हैं, एक है ‘सुगम’ लेकिन हानिकारक और दूसरा ‘दुर्गम’ लेकिन हितकार। ये क्रमशः क्षणिक तथा चिरकालिक सुख के मार्ग हैं।
आनन्दपूर्वक जीवन जीने का एक अनिवार्य नियम है मन की समता। व्यक्ति को पूर्ण समभाव की प्रवृत्ति विकसित करनी चाहिए तथा जो भी उसे मिले, वह सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। वो ज्ञानी पुरुष जो समभाव से युक्त होते हैं और जो कर्मों के फल को त्याग देते हैं, वे उस आनन्दमय स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, जो किसी भी दुख से परे हैं। <
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