एक बार गौतम बुद्ध अव्वाली गांव गये। वहां उपदेश सुनने हजारों की संख्या में ग्रामीण उपस्थित हुए। गांव का एक दरिद्र किंतु कर्मठ किसान भी उपदेशामृत पान करने वहां आया। बुद्धदेव को प्रणाम कर वह बैठ गया। लेकिन दुर्भाग्यवश उसका बैल खो गया। वह उसी चिंता में था कि बुद्धदेव का उपदेश सुने या फिर अपने बैल को ढूंढ़े। अंततः उसने सर्वप्रथम बैल ढूंढ़ने का निश्चय किया और वहां से चला गया। शाम को बैल मिल जाने पर थका-हारा और भूखा-प्यासा वह किसान उसी स्थान से निकला। उसने बुद्धदेव को उपदेश देते हुए देखा। उसने पुन: बुद्धदेव के चरण छुए और इस बार उनका उपदेश सुनने का ही निश्चय कर बैठ गया। बुद्धदेव ने उसके थके-मांदे चेहरे को निहारा और भिक्षुओं से कहा— सर्वप्रथम इसे भोजन कराओ। उसकी उदर ज्वाला शांत होने पर बुद्धदेव ने उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया। किसान ने एकाग्र मन से उपदेश सुना और फिर अपने घर चला गया। उसके जाने के बाद बुद्धदेव ने अपने शिष्यों में इस आशय की कानाफूसी सुनी कि किसान के लिए बुद्धदेव ने विलंब कराया। बुद्धदेव तब शांत स्वर में बोले— भिक्षुक गण, कृषक की उपदेश सुनने की तीव्र इच्छा थी किंतु इससे उसके कार्यों में बाधा आ पड़ती। वह अपने लोक कर्म के पालन हेतु सारे दिन भटका और भूखे होते हुए भी मेरा उपदेश सुनने चला आया। यदि मैं उस भूखे को उपदेश देने लगता तो वह उसे ग्रहण न कर पाता। याद रखो, क्षुधा के समान कोई भी सांसारिक व्याधि नहीं है।
प्रस्तुति : शशि सिंघल