मोहन मैत्रेय
गुरु रविदास का जन्म मध्ययुगीन विषम परिस्थितियों में हुआ, जिस समय भारत की सामाजिक एवं राजनीतिक दशा निराशाजनक थी। इस्लाम तथा भारतीय धर्म-साधना में संघर्ष चल रहा था। राजनीति में कुटिलता का साम्राज्य था। देश की सामाजिक दशा भी दयनीय बन गई थी और धर्म के नाम पर भान्ति-भान्ति के पाखंडों का चलन हो गया था। इस विषम स्थिति में स्वामी रामानंद प्रयाग स्थित अपने गुरु राघवानंद के आश्रम से बाहर निकले और उन्होंने पंचगंगा घाट बनारस पर अपनी गुफा बनाकर अपने क्रांतिकारी विचारों को क्रियात्मक रूप देने हेतु भक्ति आंदोलन के माध्यम से समाज परिवर्तन का दाियत्व संभाला। एक समाज सुधार मंडली का गठन हुआ, जिसमें अधिकतर सदस्य तथाकथित अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों में से थे। इस मंडली ने छुआछूत मिटाने तथा जनता को विदेशी शासकों के आतंक से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया। स्वामी जी के बारह शिष्यों में अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, पीपा, रैदास, धन्ना तथा सेन प्रमुख थे।
संत रविदास सूर्य के समान तेजस्वी थे। भविष्य पुराण में इन्हें दूसरा सूर्य कहा गया है। इनकी विशिष्टता का प्रमाण संवत् 1665 में गुरु अर्जुन देव द्वारा संपादित गुरुग्रंथ साहिब में उनके चालीस पदों का संकलन है। गुरु नानक देव ने तो इन्हें गोविंद रूप की पदवी दी थी। नाभा दास ने ‘भक्तमाल’ में इनके चर्मकार के घर में जन्म लेने का वृत्त पद्यबद्ध किया है। गुरु रविदास ने भक्ति आंदोलन के माध्यम से समाज में व्याप्त विषमता का कुहरा मिटाने का आजीवन प्रयास किया। आपका कथन इसी के अनुरूप है-
वेद कतेब पढ़े वे कुनबा वे मुल्ला वे पांडे। विविध विविध के नाम धराए सभ मिट्टी के भांडे।
स्वामी रामानंद के संवत् 1467 में देहावसान के बाद इनकी शिष्य मंडली, जिसमें रविदास प्रमुख थे, ने भारत के विभिन्न प्रदेशों में आततायी शासकों से त्राण हेतु महंती अखाड़ों की स्थापना की। इन अखाड़ों का बाहरी रूप वैरागी ईश्वर भक्त साधु-संतों का था, परंतु इनमें सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी। सर्व प्रथम अयोध्या में दिगंबरी अखाड़ा की स्थापना हुई। इन अखाड़ों में तीन प्रकार की सेनाएं थी- निर्वाणी अनी, दिंगबर अनी तथा निर्मोही अनी। दिगंबर अनी नागा साधुओं की सेना थी जो तीर्थों, मंदिरों, धर्मस्थानों की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग के लिए सदा तत्पर रहते थे।
दूसरी पंक्ति निर्वाणी अनी थी। निर्मोही अनी दोनों सेनाओं के भोजन आदि की व्यवस्था करती थी। आज भी कुंभ पर्वों पर इन सेनाओं का व्यवस्थित रूप देखने को मिलता है।
संत रविदास चाहते थे कि उस समय का भयावह वातावरण ध्वस्त हो और भारतीय समाज निर्भय तथा स्वात्म गौरव का आनन्द प्राप्त कर सके। उन्होंने कहा- ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसै रविदास रहे प्रसन्न!!
रैदास जी के अनुसार पराधीनता पाप है। उन्होंने कहा- पराधीनता पाप है, जानि लेहु रे मीत। रैदास दास पराधीन सों कवनु करइहिं प्रीत।।
प्राणिमात्र की एकता के पक्षधर रविदास कहते थे- मंदिर मसजिद दोउ एक हैं इनमें अंतर नांहि। रविदास राम रहमान का झगड़उ कोउ नांहि।।
रविदास के अनुसार श्रमपूर्वक कर्म करने और परमात्मा में मन लगाने में ही वास्तविक आध्यात्िमकता है-
श्रम कउ ईसर जानि कै जउ पूजहि दिन रैन। रविदास तिन्हहि संसार मंह सदा मिलहि सुख चैन।।
संत रविदास की वाणी में उच्चकोटि का संदेश तो है ही, वाणी काव्य का भी अद्भुत शृंगार है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन अत्यन्त सार्थक है- अनाडंबर, सहज शैली और निरीह आत्मसमर्पण के क्षेत्र में रैदास की तुलना कम संतों से की जा सकती है। यदि हार्दिक भावों की प्रेषणीयता काव्य का उत्तम गुण हो तो नि:संदेह रैदास के भजन इस गुण से समृद्ध हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि के हृदभाव बड़ी सफाई से प्रकट हुए हैं और वे अनायास सहृदय को प्रभावित करते हैं।