एक दिन की बात है । स्वामी रामकृष्ण परमहंस मां काली की मूर्ति के सामने गहरे ध्यान की अवस्था में बैठे आर्त्त पुकार कर रहे थे। उनकी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे और वह लगातार मां-मां बुदबुदा रहे थे। इसी बीच एक उपदेशक केशवचंद्र सेन, जिनका मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं था, परमहंस जी से मुलाकात करने आ गए। परमहंस जी का ध्यान टूटा तो केशव चंद्र सेन ने उनसे पूछा, ‘परमहंस जी, मां काली के अनन्य भक्त के रूप में मैं आपका आदर करता हूं, परंतु एक गोबर मिट्टी की मूर्ति के सामने मां-मां करके बच्चों की तरह रोना मेरी समझ से परे है। यह कौन-सी भक्ति है। यह आप जैसे महान संत की ख्याति के अनुरूप नहीं है।’ परमहंस जी ने कहा, ‘व्यक्ति वही देखता है, जो उसके मस्तिष्क में भरा होता है, जिसके मस्तिष्क में गोबर, मिट्टी भरी होती है, वे मूर्ति में भी गोबर और मिट्टी ही देखते हैं। जो ईश्वर चिंतन में डूबा रहता है, उसे मूर्ति में और हर तरफ ईश्वर ही ईश्वर दिखाई देता है। सच्चा सनातनी मूर्ति को मात्र पत्थर मानकर नहीं, बल्कि ईश्वर की व्यापकता पर ध्यान केंद्रित करता है।’ प्रस्तुति : मधुसूदन शर्मा