बर्मा के एक संपन्न परिवार में जन्मी सरस्वती राजमणि बचपन से ही देशभक्त थीं। सोलह साल की किशोर उम्र में वह सुभाष चन्द्र बोस से बेहद प्रभावित हुईं। उसने अपने सारे गहने आज़ाद हिन्द फौज को दान कर दिए। नेताजी उनके गहने लौटाने गए तो उन्होंने लेने से मना करते हुए कहा कि वह उनकी आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होना चाहती हैं। नेताजी ने राजमणि और उसके चार दोस्तों को आईएनए की खुफिया विंग में बतौर युवा जासूस भर्ती कर लिया। सरस्वती राजमणि ने अपनी सहेली दुर्गा के साथ मिलकर अंग्रेजों के कैम्प की जासूसी की। भेष बदलकर ब्रिटिश कैम्पों और कम्पनी के अधिकारियों के घर में घरेलू सहायक का काम किया। इस तरह अंग्रेज सरकार के आदेशों और सैन्य खुफिया सूचनाओं को जुटाकर उन्हें बोस की फौज तक पहुंचाने का काम करने लगीं। राजमणि की सूझबूझ और बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर नेता जी ने उन्हें आईएनए की झांसी रानी ब्रिगेड में लेफ्टिनेंट का पद दे दिया। राजमणि ने सेना के इंटेलिजेंस विभाग के साथ काम किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, राजमणि को कोलकात्ता में ब्रिटिश सैन्य अड्डे में एक कार्यकर्ता के रूप में जासूसी के लिए भेजा गया। वर्ष 1957 में वह अपने परिवार के साथ भारत आ गई। 13 जनवरी, 2018 में 91 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। प्रस्तुति : रेनू सैनी
दूरदृष्टा, जनचेतना के अग्रदूत, वैचारिक स्वतंत्रता के पुरोधा एवं समाजसेवी सरदार दयालसिंह मजीठिया ने 2 फरवरी, 1881 को लाहौर (अब पाकिस्तान) से ‘द ट्रिब्यून’ का प्रकाशन शुरू किया। विभाजन के बाद लाहौर से शिमला व अंबाला होते हुए यह समाचार पत्र अब चंडीगढ़ से प्रकाशित हो रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ के सहयोगी प्रकाशनों के रूप में 15 अगस्त, 1978 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून व पंजाबी ट्रिब्यून की शुरुआत हुई। द ट्रिब्यून प्रकाशन समूह का संचालन एक ट्रस्ट द्वारा किया जाता है।
हमें दूरदर्शी ट्रस्टियों डॉ. तुलसीदास (प्रेसीडेंट), न्यायमूर्ति डी. के. महाजन, लेफ्टिनेंट जनरल पी. एस. ज्ञानी, एच. आर. भाटिया, डॉ. एम. एस. रंधावा तथा तत्कालीन प्रधान संपादक प्रेम भाटिया का भावपूर्ण स्मरण करना जरूरी लगता है, जिनके प्रयासों से दैनिक ट्रिब्यून अस्तित्व में आया।