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गीता के ज्ञान से जीवन सत्य की खोज

गीता जयंती

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श्रीकृष्ण का यह आत्मिक मेल और भावों का अनूठा संचार था। इससे अर्जुन की बुद्धि निर्मलता को प्राप्त हो गई और वह ईश्वर के यथार्थ स्वरूप के दर्शन कर पाए। यही विराट रूप भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप कहलाया था, जो मात्र योग की उत्कृष्ठता से ही संभव हुआ।

वैश्विक जनमानस की जीवनधारा को प्रभावित करने में गीता की अहम भूमिका है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक ग्रंथ है, जिसकी व्यावहारिकता चिरकाल तक बनी रहेगी। कुरुक्षेत्र की धरा पर हुआ परस्पर संवाद कितना गहन था, इसका अनुमान अर्जुन की शंकाओं पर श्रीकृष्ण द्वारा की गई व्याख्या से ही स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी संवाद को गीता कहा गया है। अर्जुन का मोहपाश कितना मोहित करने वाला था, उसे सहज ही जाना जा सकता है, परन्तु उसे समझने से जीवन के लक्ष्य बदल जाते हैं।

अर्जुन का वह एक प्रश्न, जिसे श्रीकृष्ण को अढ़ाई घड़ी का उपदेश देने के लिए विवश कर दिया, वह था—‘रणभूमि में युद्ध की इच्छा से खड़े बंधु-बांधवों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो गए हैं। मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कंपन पैदा होने लगी है। हे वासुदेव! मेरे हाथ से गांडीव धनुष खिसक रहा है, त्वचा जल रही है, मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ अनुभव कर रहा हूं। हे मधुसूदन! पृथ्वी का राज्य तो क्या है, मैं तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इन्हें मारना नहीं चाहता हूं।’

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ऐसी स्थिति का निर्माण कब हुआ, अर्थात‍् वह कौन-सा दिन था जब अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के मध्य इस विषय पर वार्तालाप हुआ? वही दिवस गीता जयंती का दिन था। उसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान का संदेश दिया।

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शांति से युद्ध की ओर

हस्तिनापुर के दूत संजय ने विराटनगर पहुंचकर पांडवों को महाराज धृतराष्ट्र का संदेश सुनाते हुए कहा कि ‘आप जहां भी हो, वहीं स्वस्थ रहो।’ उन्होंने कहा कि ‘अपने सगे-संबंधियों को मारने से तो भीख मांग कर जीवित रहना अच्छा है।’ इस घटना के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण ने पांडव सभा में कहा कि ‘मैं कृष्ण, दोनों पक्षों के कल्याण के लिए कौरव सभा में जाऊं और एक शांति दूत बनकर शांति वार्ता करूंगा।’

राजसभा में पहुंचने पर श्रीकृष्ण ने अपने विस्तृत वक्तव्य के दौरान कहा कि ‘जहां अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य का हनन होता है, वह सभा नष्ट हो जाती है। पांडव धर्म के मार्ग पर चलकर अपना राज्य लौटाने का अनुरोध कर रहे हैं। इसलिए अपने अनुज पुत्रों को पैतृक भाग देकर उनका मनोरथ पूर्ण करें। राजन! इससे पांडवों और कौरवों दोनों का समान रूप से कल्याण होगा।’ इस तरह से श्रीकृष्ण ने उन्हें युद्ध की भयावह स्थिति का भी आभास करवाया। दुर्योधन द्वारा संधि प्रस्ताव न मानने पर भगवान श्रीकृष्ण विरक्त हो गए। सभा से बाहर आ गए और न चाहते हुए भी शांति प्रस्ताव से युद्ध की स्थिति बन गई।

गीता उपदेश स्थल

युद्ध के लिए दोनों सेनाएं कुरुक्षेत्र की धरा पर एकत्र होने लगीं। युद्ध के लिए दोनों सेनाओं के शिविरों के मध्य पांच योजन (लगभग 64 वर्ग किलोमीटर) का घेरा छोड़कर सौ-सौ की संख्या वाली श्रेणीबद्ध छावनियां डाल दी गईं। युद्धभूमि में प्रवेश के लिए चार द्वार बनाए गए और प्रत्येक द्वार पर एक-एक यक्ष को द्वारपाल रखा गया।

संभवत: उस समय यह स्थान दोनों सेनाओं के मध्य और एक किनारे पर रहा होगा। इस स्थान पर अर्जुन और श्रीकृष्ण के मध्य हुई वार्ता को ही गीता उपदेश कहा गया है।

गीता उपदेश तिथि

कौरव सभा में हुई खीचतान के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण और कर्ण की एकांत में भेंट हुई। श्रीकृष्ण ने कर्ण के सामने प्रस्ताव रखा कि ‘पांडव तुम्हारे भाई हैं, अतः तुम पांडवों की ओर से युद्ध करो।’ परन्तु कर्ण ने इसे ठुकरा दिया। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘हे कर्ण! मेरा प्रस्ताव तुम्हें स्वीकार नहीं है और तुम मेरे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी का राज्य भी ग्रहण नहीं करना चाहते हो।’

इसलिए तुम आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म और कृपाचार्य से जाकर कहना कि ‘इस समय सौम्य मार्गशीर्ष मास चल रहा है। इसमें जलाने की लकड़ियां और घास सुगमता से प्राप्त हो जाती हैं। सभी प्रकार की औषधियां एवं फल-फूल से समृद्धि होती है। धान के खेतों में खूब फल लगे हैं। इस सुखद मास में न अधिक गर्मी है और न ही अधिक सर्दी है।’

अर्थात‍् आज से सातवें दिन अमावस्या होगी, उसके देवता इन्द्र कहे गए हैं। उसी में युद्ध आरंभ किया जाएगा। इसका अर्थ हुआ कि मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को श्रीकृष्ण हस्तिनापुर राजसभा में शांति दूत बनकर गए थे। परन्तु मौसलपर्व के अनुसार युद्ध वाले महीने में त्रयोदशी को अमावस्या थी। इस तरह श्रीकृष्ण ने कौरवों के समक्ष कृष्ण पक्ष की सप्तमी को शांति प्रस्ताव रखा था।

अतः मार्गशीर्ष की अमावस्या को ही कुरुक्षेत्र भूमि पर महायुद्ध आरंभ हुआ था और मूलतः उसी दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया था। इस वर्ष गीता जयंती अमावस्या 20 नवम्बर को है। इसी अमावस्या को सही मानना चाहिए। परन्तु अनेक जानकार गीता जयंती को मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को मानते हैं, इसलिए इसे मोक्षदा एकादशी भी कहा गया है।

उपदेश

मार्गशीर्ष की अमावस्या के उस दिन सूर्योदय के समय अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थान पर ले गए। वहां पर अर्जुन के विचलित होने की स्थिति, प्रश्न तथा उनके मोहपाश की स्थिति बड़ी दयनीय थी।

अर्जुन के उपरोक्त एक प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण ने त्रिविद्या के ज्ञान, कर्म और उपासना के गूढ़ रहस्य को समझाते हुए कर्म की महत्ता पर बल दिया। उन्होंने अर्जुन को ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग की धारा में प्रवाहित करते हुए कर्त्तव्य पालन का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘इस संसार में कर्म को करने और कर्त्तव्य के पालन से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है।’

श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्त्तव्य कर्म करना शेष है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु मुझे अप्राप्य है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न ही प्राप्त करने की इच्छा है, फिर भी मैं निरंतर कर्म में लगा रहता हूं। पार्थ! ज्ञानी मनुष्य अनासक्त भाव से लोक-संग्रह के लिए कर्म करते हैं और वह तुम्हें भी करने चाहिए।’

विराट रूप

गीता उपदेश के दौरान योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्त्तव्यवादी बनने और उनके संस्कारों को चित्त पर नहीं पड़ने देने का सूत्र दिया। उनके ज्ञान, कर्म और उपासना के संदेश के पश्चात भी जब श्रीकृष्ण को लगा कि अर्जुन अभी संशय में घिरा है, तब उन्होंने योग का सहारा लिया और युद्धभूमि में ही समाधिस्थ हो गए।

कुछ विद्वानों के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा को अपनी आत्मिक शक्ति के साथ संयोग करवाया। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा से मेल करते हुए प्राण की गति के रेचक को कुम्भक में परिणत कर दिया। उन्होंने अपने सभी दस प्राणों को मन से मिलाप कर परमात्मा के साथ एक सूत्र में पिरो दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आत्मा का अर्जुन की आत्मा से मिलन हुआ और आत्मा जागृत होने लगी।

इससे अर्जुन की अंतरात्मा अति हर्ष से भर गई और उन्हें दिव्य दृश्य दिखाई देने लगे। अर्जुन को जैसे ब्रह्मांड में अग्नि प्रदीप्त हो रही है, समुद्र स्थिर हो गया, वायु की गति का आभास होने लगा तथा जल तेज प्रवाह में चलता दिखाई दे रहा था। प्रकृति का चक्र भौतिक पिण्डों में गति कर रहा था। ईश्वर के आंगन में जीवन की गति का चक्र चलता दिखाई दे रहा था। इसमें कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा था तो कोई जन्म ले रहा था। इस प्रकार दोनों सेनाएं मृत्यु के आंगन में विराजमान दिखाई दे रही थीं।

श्रीकृष्ण का यह आत्मिक मेल और भावों का अनूठा संचार था। इससे अर्जुन की बुद्धि निर्मलता को प्राप्त हो गई और वह ईश्वर के यथार्थ स्वरूप के दर्शन कर पाए। यही विराट रूप भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप कहलाया था, जो मात्र योग की उत्कृष्ठता से ही संभव हुआ।

अतः श्रीकृष्ण और उनके संदेश की व्यावहारिकता को समझने के लिए केवल योग ही एकमात्र साधन है। व्यक्ति, योग को अपनाकर ही गीता के रहस्यों को जानने में सक्षम हो सकता है। यही गीता का मूल रूप है, जिससे मानव स्वयं और समाज का उत्थान करने में समर्थ होगा।

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