सेवाभाव से ही फलित होती है भक्ति : The Dainik Tribune

सेवाभाव से ही फलित होती है भक्ति

सेवाभाव से ही फलित होती है भक्ति

डॉ. मोनिका शर्मा

हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के रंग ऐसे हैं कि ईश्वर से भी मन का जुड़ाव होता है। परमात्मा के साथ भी आत्मीय प्रीति की डोर से मन बांध जाता है। भक्ति का भाव असल में ईश्वर के प्रति प्रेम ही है। ऐसा प्रेम जो मन को शक्ति देता है और जीवन को सहज को प्रवाह। ईश्वरीय आस्था से जुड़ा यह पक्ष, प्रेम का सबसे पावन भाव है। कहते हैं कि प्रार्थना, प्रेम का ही एक रूप है। ऐसे में प्रार्थना करते हुए इस संसार में मौजूद हर जीव से प्रेम करने वाला मन मांगा जाए तो भक्ति भाव से जुड़ी इस प्रेमिल अनुभूति से बढ़कर और क्या हो सकता है?

कल्याणकारी भाव से जुड़ा

सांसारिक जीवन में प्रेमिल जुड़ाव के बहुत से रूप हैं। इसमें ईश्वर से जुड़ा प्रेमपगा भाव सबसे ऊपर है, क्योंकि इसमें सभी के कल्याण की चाह होती है। यों भी ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के भाव से जुड़ी उपासना ईश्वर के प्रेम में डूबकर ही की जा सकती है। पूरे संसार में मंगलमय घटनाओं के होने की दुआ करने अर्थ ही समग्र संसार के लिए शुभता का परिवेश मांगने जैसा है। सबकी कुशल कामना चाहने का यह कल्याणकारी भाव ईश्वर से प्रेम करने वाले मन में स्वयं पनपने लगता है। धरती के हर जीव से जुड़ने और मन की उजास पाने का यह चेतनामयी स्वर ही प्रार्थना का भी हिस्सा होता है। वेद माता गायत्री की उपासना में भी समाहित है कि ‘परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।’ जो अंततः सभी का कल्याण और सुख चाहने से ही जुड़ा है। इस कल्याणकारी सोच के चलते ही तो प्रकृति, वनस्पति और पशु-पक्षियों से भी प्रेम हो जाता है। इस निःस्वार्थ अनुभूति से ही अपरिचित लोगों के प्रति भी मन-आदर का भाव उमड़ता है। जनकल्याण से जुड़ा प्रेम का ऐसा भाव चेतना और प्रेरणा देने वाला होता है।

विश्वास का बंधन

भक्ति आस्था की बुनियादी पर टिकी होती है। अपने ईश्वर से प्रेम करने का आधार विश्वास ही है। इस भरोसे के बल पर ही इंसान ईश्वर की दी नेमतों को समझ पाता है। अपनी कमियों से पार पा सकता है। हमें दूसरों की पीड़ा में साझीदार बनने का मानस मिलता है। यह विश्वास अपने हों या पराये, सभी के साथ स्नेह और संवेदनाओं की मजबूत डोर से बांध देता है। जैसे अभिभावकों और गुरुजनों का प्रेम मन को निष्ठा और विश्वास की सौगात देता है, वैसे ही ईश्वर से जुड़ाव रखने वाला हर इंसान का एक सुखद स्नेहपगे विश्वास से बल पाता है। ईश्वर से अनुराग का यह भाव मन-जीवन को हर तरह से संबल देता है। तभी तो भक्ति भाव से पूरित इस जुड़ाव को आसक्ति नहीं मुक्ति का मार्ग माना जाता है।

समर्पण की सेवाभावी सोच

भक्ति भाव से ईश्वरीय आस्था से जुड़ना समर्पण की सोच को बल देता है। देखा जाए तो आम जीवन में इंसानी रिश्तों में प्रेम आत्मीय समर्पण के बिना अधूरा ही होता है। सुख-दुख में साथ होने का भरोसा समर्पण के भाव से ही आता है। समर्पण का यह भाव सेवा से जुड़ा है। किसी भी रिश्ते के पीड़ादायी दौर में अपने साथी, अभिभावक, मित्र या गुरुजन की संभाल देखभाल करने का सेवाभाव प्रेम से ही उपजता है। इतना ही नहीं, प्रेम तो अपनी जन्मभूमि से भी किया जाता है। जिसके मान और सुरक्षा के लिए सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण भी सबसे ज्यादा प्रेम ब्रज की दिव्यभूमि से ही करते थे। जबकि इस दिव्य धरा से उन्हें दूर भी होना पड़ा। श्रीकृष्ण उद्धव से कहते भी हैं ‘वृन्दावन की उस प्रेमभूमि में मेरा हृदय बसता है।’ कई बार प्रेम में दूर हो जाना भी समर्पण और सेवा के गहरे भाव से ही जुड़ा होता है। महात्मा गांधी का कथन है ‘सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता, सेवा से प्रकट होता है।’ समझना मुश्किल नहीं, ईश्वर की भक्ति भी सेवाभाव से ही फलित होती है। भक्त वत्सल भगवान दीन-हीन लोगों की सेवा से और प्रसन्न होते हैं।’

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