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दानवीर माघ

एकदा

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माघ जितने बड़े कवि थे, उतने ही बड़े दानी। अपने दरवाजे पर आने वाले याचक को दान देने से उन्हें संतोष मिलता था। एक दिन राजा ने राजसभा में उनके द्वारा रचित काव्य की पंक्तियां सुनकर उन्हें इनाम के रूप में धन दिया। उन्होंने तमाम धनराशि रास्ते में याचकों को बांट दी। घर पहुंचे, तो द्वार पर भी याचक खड़ा था। उसे देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचा था। याचक ने आंखों में आंसू भरकर कहा, ‘मेरी बूढ़ी मां बीमार है। दवा के लिए भी पैसे नहीं हैं।’ माघ ने सुनते ही द्रवित होकर प्रार्थना की, ‘हे मेरे प्राण, इस विवशता में आप स्वयं मुझे छोड़ चलिए। आत्महत्या पाप है, अन्यथा में प्राण त्याग देता।’ अचानक उनका एक मित्र पहुंचा। वह देखते ही सब समझ गया। उसने अपनी जेब से मुद्रा निकाली और याचक को दे दी। माघ ने मित्र में भी भगवान के दर्शन किए, जिसने उनकी लाज बचा ली।

प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी

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