विजय सिंगल
दृश्यमान जगत को प्रभु की माया कहा गया है। आम बोलचाल की भाषा में माया का अर्थ है धोखा, भ्रान्ति या झूठी दिखावट। इसलिए, कुछ लोगों का मानना है कि दुनिया केवल एक भ्रमजाल है। भगवद्गीता इस विचार को स्वीकार नहीं करती। वह नहीं मानती कि संसार के सभी प्राणी, वस्तुएं और घटनाएं अवास्तविक हैं।
माया ईश्वर की वह शक्ति है जो उसे ब्रह्मांड का सृजन करने में सक्षम बनाती है। यह वह ऊर्जा है जिसके द्वारा ईश्वर हरदम परिवर्तनशील संसार का निर्माण और पालन-पोषण करता है। इसलिए निर्मित ब्रह्मांड को माया भी कहा गया है।
भगवान श्रीकृष्ण श्लोक संख्या 4.6 में कहते हैं कि यद्यपि वे अजन्मे, अविनाशी और समस्त जीवों के स्वामी हैं; तो भी वे अपनी प्रकृति में स्थित होकर अपनी ही आंतरिक शक्ति (आत्म-माया) के द्वारा प्रकट होते हैं। दूसरे शब्दों में परमात्मा माया के माध्यम से अपना रूप धारण करते हैं।
7.4 से 7.6 के श्लोकों में ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या की गयी है। यह बताया गया है कि ईश्वर के दो प्रकार के स्वभाव हैं, पहला भौतिक प्रकृति (लौकिक स्वभाव) और दूसरा चेतन प्रकृति (अलौकिक स्वभाव)। पहले स्वभाव में शामिल हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं अहं-भाव; और दूसरा स्वभाव है आत्मा। भौतिक प्रकृति नाशवान है, आत्मा अमर और अविनाशी है। समस्त प्राणी इन दो स्वभावों से ही उत्पन्न होते हैं। ईश्वर सम्पूर्ण जगत को पैदा करने वाला और उसका विनाश करने वाला है। इस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर के इन दो स्वरूपों के द्वारा ही बनाया गया है।
यही विषय कि सभी प्राणी भौतिक और चेतन प्रकृति के संयोग से ही पैदा होते हैं, श्लोक संख्या 13.27, 14.3 और 14.4 में भी दोहराया गया है। चूंकि भौतिक प्रकृति और चेतना, दोनों ईश्वर के ही स्वभाव हैं, वे ही पूरे ब्रह्मांड की माता और उनके पिता भी हैं।
श्लोक संख्या 7.7 में कहा गया है कि यह सम्पूर्ण जगत ईश्वर में ऐसे ही गुंथा रहता है, जैसे माला के मोती धागे में गुंथे रहते हैं। इसके अलावा श्लोक संख्या 18.61 में कहा गया है कि ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करते हुए, उन्हें अपनी माया के द्वारा, इस जगत में ऐसे घुमाता रहता है, जैसे वह किसी यन्त्र पर आरूढ़ हों। इस प्रकार, ईश्वर अपनी रहस्यमय शक्ति माया के द्वारा न केवल ब्रह्मांड का निर्माण करते हैं, बल्कि उसी शक्ति के माध्यम से इसे व्यवस्थित ढंग से चलाने का काम भी करते हैं। सभी प्राणियों के हृदय में विराजमान, वे (ईश्वर) जीवन के विकास की प्रक्रिया को भी बल देते हैं। श्लोक संख्या 16.8 और 16.9 में यह स्पष्ट किया गया है कि ईश्वर द्वारा अपनी माया के माध्यम से बनाया गया दृश्यमान जगत वास्तविक है, न कि एक भ्रम। श्लोक संख्या 7.14 में माया के अन्य रहस्यों का खुलासा करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि तीन गुणों से युक्त उनकी (ईश्वर की) इस दिव्य माया को पार कर पाना बहुत कठिन है।
ईश्वर सृष्टि की रचना करता है परन्तु स्वयं इस सृष्टि से परे रहता है। माया द्वारा बनाए गए दृश्यमान जगत की चकाचौंध से बच पाना किसी के लिए भी मुश्किल है। इंद्रियों के विषय से आकर्षित होकर मनुष्य अपने मन को सृष्टिकर्ता में लगाने के बजाय सृष्टि की वस्तुओं में ज्यादा लगाता है। माया जब मनुष्य का ज्ञान हर लेती है, तब वह सांसारिक मायाजाल में फंसा रहता है और ईश्वर की शरण ग्रहण नहीं करता। विषयों का आकर्षण उसे ईश्वर से दूर ले जाता है। माया के ऐसे आकर्षण के कारण आत्मा, जो अन्यथा मुक्त है, स्वयं को बंधन में पाती है। परन्तु जो पुरुष ईश्वर की शरण में आ जाते हैं, वह माया को पार कर जाते हैं, अर्थात प्रकृति और उसके गुणों से ऊंचा उठ जाते हैं।