एक बार गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के पास उनका एक प्रशंसक मिलने आ पहुंचा। गुरुदेव उस समय अपने दैनिक कार्यों से निपटकर लेखन कर्म में व्यस्त थे। जिस प्रकार हर लेखक का लिखने का अपना अलग अंदाज होता है, उसी प्रकार गुरुदेव भी कुर्सी पर बैठकर मेज़ पर झुकते हुए लिखा करते थे। प्रशंसक ने देखा कि लिखते हुए गुरुदेव का सिर मेज़ पर रखे कागजों पर लगभग टकरा ही रहा था। उसने सहानुभूति जताते हुए कहा, ‘गुरुदेव, इस उम्र में ऐसे तो आपको पूरे शरीर को कष्ट देना पड़ता है। आप क्यों नहीं एक ऊंची मेज़ बनवा लेते, जिससे आपको अधिक न झुकना पड़े और आपका लेखन कार्य सुगमता से होता रहे।’ गुरुदेव मुस्कुराते हुए बोले, ‘मेरे भाई, मैं वास्तव में इसी प्रकार लिख सकता हूं। सीधा बैठूंगा तो मेरे भीतर से कुछ भी नहीं निकलेगा।’ ‘ऐसा क्यों’, प्रशंसक ने आश्चर्य से पूछा तो गुरुदेव गम्भीरता से कहने लगे, ‘जब सुराही में पानी कम हो जाता है, तब उसे झुकाकर ही पानी प्राप्त किया जा सकता है। पानी का अंत आते-आते सुराही का झुकाव भी बढ़ता जाता है। वही स्थिति अब इस शरीर की हो चली है। प्रस्तुति : मुकेश कुमार जैन