‘प्रभु! मेरे दुखी पुत्र पर सुख-शांति की वर्षा करना। संत उस पर प्रसन्न रहें, उसका जीवन पवित्र और प्रभु-प्रेममय रहे।’ संत बायजीद देहरी से अपने लिए माता की यह प्रार्थना सुन रहे थे। बाहर रहकर उन्होंने कठोर तप साधना की थी और उससे लाभान्वित होकर माता के दर्शन करने का निश्चय किया था। कितने दिनों बाद वे अपने घर के द्वार पर पहुंचे थे। ‘मां! तेरा दुखी पुत्र आ गया है।’ बायजीद का हृदय मातृ स्नेह से भर आया था। व्याकुल होकर उन्होंने आवाज दी।
पुत्र की आवाज पहचानकर माता ने तुरंत दरवाजा खोला और बायजीद को हृदय से लगा लिया। वृद्धा की आंखों से अश्रुसरिता प्रवाहित हो रही थी। मस्तक पर हाथ फेरते हुए मां ने कहा- ‘बेटा! बहुत दिनों बाद तूने मेरी सुधि ली। तेरी याद में रोते-रोते मैं मौत के दरवाजे पर आ गयी हूं।’
‘मां!’ रोते हुए तपस्वी संत ने कहा- ‘मैं मूर्ख हूं। जिस कार्य को गौण समझकर मैं यहां से चला गया था, उसका महत्व अब समझ में आया है। कठोर तप करके मैंने जो लाभ उठाया है, यदि तुम्हारी सेवा करता रहता, तो वह लाभ अब तक कभी का सरलता से मिल गया होता। अब मैं तुम्हारी सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं करूंगा।’
बायजीद माता की सेवा का निरंतर ध्यान रखते। एक रात माता ने पानी मांगा। बायजीद ने देखा, घर के किसी बर्तन में पानी नहीं था, वे नदी से पानी लेने गये। पानी लेकर लौटे तो देखा मां को नींद आ गयी है। वे चुपचाप बर्तन लिये खड़े रहे। सर्दी से अंगुलियां ठिठुर रही थीं, पर वे बर्तन इसलिए नहीं रख रहे थे कि इसके रखने की आवाज से मां की नींद टूट जाएगी। जल-भरा बर्तन लिए वे खड़े रहे। मां की नींद खुली, तब उन्हें पानी पिलाकर आशीष प्राप्त किया।
(साभार कल्याण सत्कथा अंक)
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