किसान अंसतोष के मुखर होते स्वर : The Dainik Tribune

किसान अंसतोष के मुखर होते स्वर

किसान अंसतोष के मुखर होते स्वर

12211927cd _big_469827_1507779610राष्ट्रीय राजधानी 20 और 21 नवंबर को किसानों की ऐतिहासिक सभा की साक्षी बनी। किसानों के मुद्दों पर विचार-विमर्श के लिए देशभर के हजारों किसान संसद मार्ग पर किसान मुक्ति संसद में जुटे। इस संसद में दो ऐतिहासिक विधेयक प्रस्तुत किये गये तथा सार्वजनिक चर्चा के लिए जारी किये गये। यह सभा कई मायनों में ऐतिहासिक थी। सर्वप्रथम, यह शायद देश में किसान संगठनों के सबसे बड़े गठबंधन का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे, किसान आंदोलन के इतिहास में यह एक दुर्लभ क्षण था, जो देश के विभिन्न हिस्सों के किसानों को एकजुट कर पाया। ऐतिहासिक तौर पर विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्र, विभिन्न प्रकार की फसलों तथा राज्यों की नीतियों एवं राजनीति की विविधता के चलते भारतीय किसान आपस में बंटा हुआ है। तीसरे, आजादी के बाद यह पहली बार हुआ कि भारतीय किसानों के विभिन्न वर्गों के हितों पर एक ही मंच पर चर्चा हुई। एआईकेएससीसी हिस्सेदार-बंटाईदार तथा भूमिहीन कृषक मजदूरों की सहभागिता वाले मालिक-किसान खेतिहर किसानों के संगठनों के एक एकजुट होने की बहुत ही सजग पहल है। चौथे, इस संसद के पहले सत्र में सिर्फ महिला किसान ही शामिल थीं, यानी किसान संगठनों के राष्ट्रीय गठबंधन ने पहली बार भारतीय कृषि में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका को मान्यता प्रदान की। खेती का करीब 70 प्रतिशत काम महिलाएं ही करती हैं, लेकिन उन्हें किसान आंदोलनों की प्रतीकात्मकता तथा नेतृत्व से बाहर रखा जाता है।

योगेन्द्र यादव योगेन्द्र यादव

सरकार से 'नये सौदे' की मांग करते हुए किसानों ने सिर्फ दो बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है : उनकी फसल का उचित तथा लाभकारी मूल्य और कर्ज से पूर्ण मुक्ति।  कर्ज माफी तथा उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान संगठनों की बहुत पुरानी मांगें हैं। लेकिन पहली बार किसान अन्य जरूरी मुद्दों पर जोर दिये बिना सिर्फ इन दो पर ही ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। इसके अलावा किसान इन दो मांगों को स्पष्ट औचित्य तथा सतर्क नीति निरूपण के साथ नयी भाषा में व्यक्त कर रहे हैं।'सुनिश्चित मूल्य संबंधी कृषि उत्पाद विधेयक के लिए किसानों के अधिकार' में संपुटित पहली मांग कृषि उत्पादों के उचित तथा लाभकारी मूल्यों से संबंधित है। कृषि उत्पादों की कीमतों को पिछले कई सालों से असंख्य नीतिगत उपायों के जरिए जानबूझकर दबाकर रखा गया है, जबकि लागत मूल्य तथा जीवन के खर्चों में बेतहाशा वृद्धि हो गई है। हालांकि सरकार परंपरा के मुताबिक हर साल 24 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, लेकिन 10 प्रतिशत से भी कम किसानों को मुश्किल से इसका लाभ मिल पाता है।चालू मार्केटिंग सीजन में देश की शीर्ष सौ मंडियों में कीमतों के विश्लेषण से पता चलता है कि आठ मुख्य खरीफ फसलों का बाजार भाव आधिकारिक न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम है। न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बेचने की परेशानी के चलते अकेले इसी सीजन में किसानों को करीब 36,000 करोड़ रुपए का नुकसान उठाना पड़ा है। सभी फसलों का घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य बहुत ही कम है, बल्कि असल में इस खरीफ सीजन में 14 में से 7 फसलों में तो  न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर गणित उत्पादन लागत से भी कम था। अगर ये घोषित समर्थन मूल्य किसानों को प्राप्त हो भी जाते हैं तो उनकी शुद्ध आमदन इतनी मामूली हो जायेगी कि उनका बुनियादी जीवन यापन भी मुश्किल से ही हो पायेगा।इसीलिए किसानों की मांग हेै कि सरकार को सुनिश्चित लाभकारी मूल्य प्रदान करना चाहिए, जो कि सभी तरह के कृषि उत्पादन की लागत से 50 प्रतिशत अधिक हो। इसके अलावा सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि राष्ट्रीय किसान आयोग की सिफारिशों तथा भाजपा द्वारा चुनावों में किये गये वादे के मुताबिक किसानों को यह मूल्य प्राप्त हो सके। किसान चाहता है कि अब इस आश्वासन को कानूनी अधिकार बना दिया जाना चाहिए।यह सुनिश्चित कैसे हो सकता है? सबसे पहले दलहन, तिलहन तथा बाजरे की फसलों को खाद्य सुरक्षा कानून तथा अन्य कानूनों/खाद्य योजनाओं के अंतर्गत लाते हुए मात्रा तथा वस्तुएं बढ़ाने के लिए सरकारी प्राप्ति का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। दूसरे मार्कफैड, नैफेड तथा नागरिक आपूर्ति जैसी एजेंसियां निरंतर पर्याप्त पैसे के साथ बाजार में सामयिक एवं कारगर हस्तक्षेप के लिए अधिकृत होनी चाहिए। तीसरे जब बाजार भाव घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चले जायें, उस स्थिति में किसान को अंतर का भुगतान कमीपूरक भुगतान व्यवस्था के तहत किया जाना चाहिए। चौथे, एपीएमसी कानूनों में विधायी परिवर्तन करते हुए किसी भी अधिसूचित वस्तु को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम मूल्य पर खरीदने को दंडनीय अपराध बनाया जाना चाहिए। अंतत: आयात-निर्यात नीतियों में यह बात सुनिश्चित की जानी चाहिए कि दूसरे देशों से छूट प्राप्त सस्ते आयात के कारण किसान कीमत में मार न खा जाये।दूसरी मांग ‘किसानों को कर्ज से मुक्ति संबंधी विधेयक’ में शामिल की गई है। यह किसानों का खाता साफ होने संबंधी जरूरत तथा इस तथ्य को स्वीकृति प्रदान करना है कि इस तरह के कर्ज अक्सर आत्महत्याओं की तात्कालिक वजह बनते हैं और यह भी कि जमा कर्ज के कारण देश का भी किसान के प्रति कोई फर्ज बनता है। किसानों की मांग है कि सरकार को संस्थागत तथा गैर-संस्थागत कर्ज सहित उनके तमाम बकाया कर्ज माफ कर देने चाहिए। साथ ही सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान कर्ज के जाल में न फंसे।कर्ज, किसान आत्महत्याओं तथा किसानों की परेशानी का सबसे बड़ा कारण है। कर्जदार परिवारों का अनुपात 1992 के 25 प्रतिशत के मुकाबले 2016 में बढ़कर 52 प्रतिशत (बल्कि कुछ राज्यों में तो 89 प्रतिशत तथा 93 प्रतिशत) तक पहुंच गया। 68 प्रतिशत किसान परिवारों की आमदन तो नकारात्मक स्थिति में पहुंच चुकी है।सभी किसानों के आज तक के बकाया कर्ज को एक बार के लिए एकमुश्त माफ करना तथा एक किस्त में लागू करना जरूरी होगा। इस कर्ज माफी के तहत हर तरह के बैंकों - राष्ट्रीयकृत, सहकारी तथा निजी के कर्ज को शामिल किया जाना चाहिए तथा केंद्रीय एवं राज्य सरकारों को इसकी म़ंजूरी प्रदान करनी होगी।निजी (गैरसंस्थागत) कृषि कर्जों से मुक्ति का लाभ निपटारे, अदला-बदली तथा माफी के रूप में बंटाईदारों, पट्टेदारों, कृषि मजदूरों, आदिवासियों तथा महिला किसानों सहित सभी को मिलना चाहिए। इस तरह की कर्ज माफी के तहत पिछले सीजन में जैसे-तैसे चुकाये गये फसल ऋण के बराबर रकम ऐसा करने वाले किसानों के बैंक खातों में भी जमा की जानी चाहिए। नियमित तथा सुनिश्चित आमदन के बिना कर्ज से मुक्ति संभव नहीं है, और अगर कर्ज पर ब्याज बढ़ता जा रहा है तो फिर लाभकारी मूल्य से भी कोई फायदा होने वाला नहीं। अगर सरकार चाहती है कि भारतीय कृषि तथा किसान का कोई भविष्य हो तो फिर ये दोनों बातें तुरंत तथा एकसाथ करना जरूरी है।(लेखक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)

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