मैं फिदा थी देव साहब पर
बायस्कोप/वैजयंतीमाला
असीम
हमेशा की तरह अपने नृत्य के शौक को ले कर मैं इन दिनों भी व्यस्त हूं। इसके जरिये मेरी सामाजिक सक्रियता भी जारी रहती है। कुछ साल पहले मेरी आत्मकथा ‘बॉन्डिंग- ए मेमोयेर’ की काफी चर्चा हुई थी। इसमें मैंने राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आनंद जैसे अपने कुछ नायकों के बारे में काफी दिलचस्प बातें लिखी थीं। मगर अब उन बातों को मैं फिर से कुरेदना नहीं चाहती हूं। राज कपूर के साथ अपनी फिल्म संगम का जिक्र जरूर करूंगी। संगम में मुझे साइन करने से पहले उन्होंने एक दिलचस्प टेलीग्राम भेजा था – ‘बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं’। अपनी धर्म मां से सलाह कर मैंने इस टेलीग्राम का जवाब कुछ यूं भेजा था – ‘संगम, होगा होगा होगा…’। इस घटना के बाद ही संगम के उस लोकप्रिय गाने का आइडिया राज कपूर के जेहन में आया था। स्विमिंग सूट वाले इस दृश्य के फिल्मांकन से पहले उन्होंने मेरी गाॅड मदर को बहुत अच्छी तरह से मना लिया था। मां को उन्होंने तब कुछ इस तरह से समझाया था- आप निश्चिंत रहिए, वह इस पोशाक में पानी में ही खड़ी नजर आयेगी, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। लांग शॉट लूंगा, बाकी का शॉट डुप्लीकेट के जरिये पूरा कर लूंगा। इस वजह से मां भी कोई इंकार नहीं कर सकी।
देवदास के बाद दिलीप कुमार के साथ मेरी जोड़ी को काफी सफल माना गया था। पर बीच में कुछ आपसी गलतफहमी के चलते हमारे बीच कुछ मतभेद पैदा हो गये थे। खैर,फिर भी हम दोनों ने एक साथ कई फिल्मों में काम किया। असल में किसी बात पर दिलीप साहब का अनप्रोफेशनल रवैया मुझे बहुत असहनीय लगा था। हमारे बीच कोई पर्सनल प्रॉब्लम नहीं थी। परदे की केमिस्ट्री भी बहुत अच्छी थी। दूसरी ओर देव साहब थे। वह इतने सुदर्शन और दिलचस्प व्यक्तित्व के थे कि कोई भी लड़की उनकी तरफ आकर्षित हो सकती थी। अमरदीप फिल्म में पहली बार उनके साथ काम करने का मौका मुझे मिला था। वे कैमरे को ले कर जरूरत से ज्यादा सचेत रहते थे। किस प्रोफाइल में वो कैसे लगेंगे, इसका खास ख्याल रखते थे। मैं उनके निराले व्यक्तित्व की कायल थी। मुग्ध होकर उनके हर हाव-भाव से कुछ सीखने की कोशिश करती थी। जब वे धारा प्रवाह लंबे-लंबे संवाद बोलते थे, मैं गौर करती थी कि वे इसमें किस कदर डूब जाते थे। जैसा उनका बोलने का अंदाज था, उनका अभिनय वैसा ही मैथेडिकल होता था। मैं उनके साथ इतनी सहज थी कि वे जब मेरे कंधे पर हाथ रख कर चलते थे, मैं शर्म में डूब जाती थी। ऐसे चलते-चलते वे जब डायलॉग बोलते थे, ऐसा लगता था मानो वे हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में डायलॉग बोल रहे हों। एकदम अंग्रेज नायकों की तरह।
फिल्मों में मेरी शुरुआत एक डांसिंग स्टार के रूप में हुई थी, पर बाद में अपने अभिनय से मैंने कई लोगों की धारणा गलत साबित कर दी। 1951 में मात्र पंद्रह साल की उम्र में दक्षिण के प्रसिद्ध बैनर एबीएम की तमिल फिल्म वजनई से मेरा फिल्म करियर शुरू हुआ था। बाद में इस फिल्म को हिंदी में कहार नाम से बनाया गया। इसमें मेरे नृत्यों ने दर्शकों पर एक अलग समां बांधा। लेकिन 1954 में प्रदर्शित फिल्म नागिन की बीन पर थिरक कर मैंने यह सिद्ध कर दिया कि मैं एक कुशल नृत्यांगना हूं। असल में अपने नृत्य शौक के चलते ही मैं फिल्मों के साथ जुड़ी थी। मैं खुशनसीब हूं कि मैंने हिंदी फिल्मों में नायकों के एकाधिकार को हमेशा तगड़ी चुनौती दी। यही वजह है कि मधुमति, गंगा जमुना जैसी फिल्में सिर्फ दिलीप कुमार की फिल्म के रूप में याद नहीं की जाती हैं। मैंने उस दौर की हिंदी फिल्मों के सारे बड़े नायकों के साथ अपनी शर्तों पर काम किया। दिलीप कुमार के साथ नया दौर, देवदास, मधुमति, गंगा जमुना, पैगाम, लीडर और संघर्ष, राज कपूर के साथ नजराना और संगम, देव आनंद के साथ अमरदीप और ज्वेलथीफ, राजेन्द्र कुमार के साथ सूरज, गंवार, आस का पंछी, साथी आदि मेरी अच्छी फिल्में थी।
बी.आर.चोपड़ा की साधना में उत्कृष्ट अभिनय के लिए 1958 में मुझे पहला फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। बाद में 1961 में गंगा जमुना और 1964 संगम के लिए भी मुझे यह सम्मान मिला। पुरस्कारों को ले कर मैं काफी गंभीर थी, यही वजह थी कि 1956 में फिल्म देवदास के लिए जब मुझे सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला, तो मैंने उसे अस्वीकार कर दिया। असल में मुझे लगता था कि देवदास में निभाया गया मेरा चंद्रमुखी का किरदार किसी भी तरह से नायिका से कमतर नहीं है।