हाशिए के लोगों की यातना का आईना
समकालीन हिंदी कहानी के परिदृश्य में सैली बलजीत का नाम किसी औपचारिक परिचय का मोहताज नहीं है। ‘यंत्र-पुरुष’ सैली का तेरहवां कहानी संग्रह है, जिसमें उनकी कुल 16 कहानियां संकलित हैं।
सुभाष रस्तोगी
समकालीन हिंदी कहानी के परिदृश्य में सैली बलजीत का नाम किसी औपचारिक परिचय का मोहताज नहीं है। ‘यंत्र-पुरुष’ सैली का तेरहवां कहानी संग्रह है, जिसमें उनकी कुल 16 कहानियां संकलित हैं। अपने समवेत पाठ में यह कहानियां हाशिए से बाहर के लोगों की यातना का आईना बनकर सामने आई हैं।
आमजन की नियति यंत्र-पुरुष होना ही है। दाएं कहे तो दाएं, बाएं कहे तो बाएं, जिस ढब मालिक कहे, उसे नाचना ही है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘यंत्र-पुरुष’ में पुलिस का ड्राइवर ऐसा ही एक यंत्र-पुरुष है जिसे ऊपर से वैष्णो देवी की यात्रा से लौटते श्रद्धालुओं में से एक हिजड़े की लावारिस लाश को ठिकाने लगाने का आदेश मिलता है और उसे एक कागज थमा दिया जाता है जिस पर मरने वाले के शहर का नाम जालंधर, नाम शंभु तो दर्ज है लेकिन उसका अता-पता नहीं लिखा है। लाश की सड़ांध को जैसे-तैसे सहन करते हुए तीन घंटे की जानलेवा यात्रा के बाद जब वह जालंधर के पुलिस स्टेशन पहुंचता है तो कोई भी पुलिस का अधिकारी उस लावारिस लाश को लेने के लिए तैयार नहीं होता। हिजड़ों की बस्ती में तो हिजड़े उस लावारिस लाश को पहचानने से ही इंकार कर देते हैं। बकौल लेखक ‘ना भाई… जाने किसकी लाश ले आए हो… हमारी बिरादरी से तो नहीं…’ (पृ. 28)। कारपोरेशन वाले भी साफ मना कर देते हैं। दो दिन धूल फांकने के बाद पुलिस ड्राइवर को उस लावारिस लाश से छुटकारा मिलता है। रहम दिल समाज-समिति वालों की मदद से, जो मानो फरिश्ते बनकर उसके सामने आ खड़े होते हैं। यह कहानी पाठक की चेतना में गहरा उद्वेलन पैदा करती है और पूरे सिस्टम को कठघरे में खड़ा कर देती है।
‘नरक कुंड’ का हिजड़ा पाठक के चित्त से उतारे से भी नहीं उतरता। जैसे ही हिजड़ों को उसकी भनक लगती है कि वह औरत है न मर्द, हिजड़े जबरदस्ती उसे अपने साथ ले आते हैं और वह पल-पल मरता ताउम्र उस नरक-कुंड की यातना सहने के लिए अभिशप्त है। जानें उसी की जुबानी उसके नरक कुंड की व्यथा, लोग हमें एक गाली देना कभी नहीं भूलते… मुझे तुम भी हिजड़ा कहकर ही बुलाते हो ना? (पृ. 44)।
‘चांडाल नहीं…’, ‘भूखे नंगे’, ‘असली नाम… चरनदास’, ‘जंगल के भूगोल में’, ‘लावारिस होती जिंदगी’, ‘वह अब फौलाद हो रहा है’, ‘अगले जन्म मोहे नरक न दीजो’, ‘राम नाम सत्य’, ‘सांप’ और ‘परशाद’ जैसी कहानियां इधर के समकालीन हिंदी कहानी परिदृश्य में शायद मुश्किल से ही मिल पाएं। इन सभी कहानियों के केंद्र में हाशिए से बाहर के ऐसे हाड़-मांस के न जीते, न मरते स्त्री-पुरुष हैं जिनकी नियति ही कीड़े-मकौड़ों की तरह गजबजाते यातना भोगना है। ‘चांडाल नहीं…’ की फ्यूनरल वैन का ड्राइवर और मुर्दा फूंकने वाले चांडाल, दोनों का धंधा वास्तव में एक ही और चांडाल यही बात उसे समझाते हुए कहता है, ‘धंधा तो दोनों का एक ही है ना? तू लाशों को न लाये तो मैं कौन होता हूं फूंकने वाला…’ (पृ. 63)। ‘भूखे नंगे’ के बहुरूपिए की सबसे बड़ी साध तो यह है कि काश उसकी भी अपनी झुग्गी हो ताकि रेलवे स्टेशन के बाहर खुले में जुआरियों, नशेड़ियों और हिजड़ों के बीच रहने से उसे छुटकारा मिल सके। दोहरा जीवन जीता ‘मुखोटों वाला आदमी’ भीतर से बेहद अकेला है। ‘असली नाम… चरनदास’ के चरनदास की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि वह अपना असल नाम ही भूल गया और स्वयं को कल्टू कहता है।
कहानी का अंत बहुत ही मार्मिक है। वह शराब पीने से इंकार करता है, हाथ जोड़ता है, लेकिन जुंडली के लोग उसके गले में शराब की गिलासियां उड़ेलना बंद नहीं करते। वह धड़ाम से गिर जाता है और सुबह उठता ही नहीं। आखिर में लेखक एक सवाल उठता है ‘…उसकी मौत के लिए एक पूरी जमात जिम्मेवार है……’ (पृ. 243)।
समग्रत: सैली बलजीत के इस नव्यतम कहानी संग्रह ‘यंत्र पुरुष’ की कमोबेश सभी कहानियां पाठकों को अपनी गिरेबान में झांकने के लिए विवश करती हैं और पाठकों को यह सोचने के लिए विवश करती हैं कि आजादी के उनहत्तर वर्ष बाद भी एक ही देश में दो देश क्यों है। एक भव्य अट्टालिकाओं में रहने वाला चमचमाता इंडिया और दूसरी ओर फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों पर झुग्गियों में खरपतवार की तरह उगता-हांफता भारत।
0पुस्तक : यंत्र-पुरुष 0लेखक : सैली बलजीत 0प्रकाशक : अवध साहित्य प्रकाशन, लखनऊ 0पृष्ठ संख्या : 291 0मूल्य : ~ 495.


