जहांगीर के इश्क-ए-कश्मीर की दास्तान सुनाता एक हाइवे
अलका कौशिक
राजौरी में चिनाब
आसपास धुंध थी, और पूरे माहौल में एक असहज चुप्पी पसरी हुई थी। सिर्फ हमारे दिल की धड़कनों का शोर उस चुप्पी को भंग कर रहा था। सहमना क्या होता है, इसका अहसास उस रोज मुझे बखूबी हुआ था …. और ठीक उस घड़ी पूरब में धुंध की चादर को धीमे से उठाते हुए सूरज की अठखेलियां दिखायी दीं … दुनियाभर में जाने कहां-कहां के सूर्योदय और सूर्यास्त के बखान सुने हैं अब तक, लेकिन चिनाब पर से उगता सूरज भी इतना हसीन दिखता होगा, किसी ने नहीं बताया था… जम्मू पार कर अखनूर से निकलते ही हम राजौरी में दाखिल हो चुके थे। पीर-पंजाल की गोद में यहां चिनाब आसपास के माहौल से पूरी तरह बेखबर, हौले-हौले सरकती है, और इसी मंथर चाल से कुछ ही किलोमीटर दूर पाकिस्तान होते हुए अरब सागर से जा मिलती है। राजौरी में इसी चिनाब पर बने पुल से गुजरते हुए सवेरे का उगना देखा उस रोज। मिचमिचाती आंखों से अंगड़ाई लेते सूरज ने चिनाब पर पसरी धुंध को कुछ धकियाया तो जरूर लेकिन कोई खास कामयाबी उसके हाथ लगी नहीं। बादलों की शैतानियों ने सूरज को कहीं का नहीं छोड़ा था, पहाडिय़ों से जैसे उतरते बादलों से भरे ट्रक उस रोज राजौरी के आसमान पर अपना सारा माल-असबाब उलटने के मूड में थे। कुछ ही देर में वो मनमौजी बादल झमाझम बरसने भी लगे। इस बीच, हमारी टवेरा भी चिनाब पर बने पुल को काफी पीछे छोड़ आयी थी। अलबत्ता, सड़क के साथ-साथ दूर तक नदी की एक धार हमारे साथ चलती रही। उसी के किनारे कहीं टैंट तो कहीं जीपें उस पूरे नजारे की लयताल को तोड़ जाती थीं। सेना की इस छितरायी हुई सी मौजूदगी से धड़कते दिल को थोड़ी राहत मिलना लाजिमी था। जम्मू स्टेशन छोड़े हुए यही कोई दो घंटे हुए जाते थे और अब तक एक भी वाहन ने न हमें ओवरटेक किया था और न किसी से आमना-सामना हुआ था!
हम मुगल रोड की ओर बढ़ रहे थे। यह वही सड़क थी जिस पर मुगल बादशाह जहांगीर अपने लाव-लश्कर के साथ लाहौर से कश्मीर आया-जाया करते थे। अकबर ने 1588 में कश्मीर फतह करने के लिए इसी राह को पकड़ा था। हालांकि अकबर के जमाने से ही लाहौर और कश्मीर को जोडऩे वाले इस मार्ग पर आवाजाही शुरू हो गई थी, लेकिन ईरानी आर्किटैक्ट अली मर्दान खां ने सम्राट जहांगीर के आदेश पर 1605 से 1621 के दरम्यान इस ऐतिहासिक हाइवे का विधिवत निर्माण किया था। बीते दौर में पाकिस्तान से श्रीनगर तक इस मार्ग की लंबाई करीब 170 मील थी और रास्ते में छोटे-बड़े करीब 14 ठौर शाही काफिलों के सुस्ताने के लिए बने थे।
कहते हैं यूनानी हमलावर सिकंदर भी इसी मार्ग से उत्तर की ओर अपने साम्राज्य को विस्तार देने के लिए आगे बढ़ा था। उसकी सेना बफलियाज (इस नाम को भी कुछ इतिहासकर ग्रीक मानते हैं) तक पहुंची भी थी लेकिन पहाड़ी रास्तों की निर्ममता ने उसे आगे बढऩे से रोक दिया।
मुगल रोड पर देशभक्ति का संदेश देते पत्थर
और यहीं इसी सफर में कश्मीर से लाहौर लौटते हुए 1627 में जहांगीर का इंतकाल हो गया था। तब उसकी बेगम नूरजहां ने राजौरी में एक मुफीदसी जगह देखकर बादशाह की अंतडिय़ों को दफन कर दिया। यह जगह अब चिंगस (फारसी चिंगस-आंत) सराय के नाम से मशहूर है। जम्मू से करीब 130 किलोमीटर दूर, नौशेरा और राजौरी के बीच स्थित यह मुगल सराय दरअसल, मुगलकाल में इस मार्ग पर बने ठौर-ठिकानों में से एक थी। नूरजहां ने अपनी लाहौर वापसी तक शहजादों के बीच ताज को लेकर खूनखराबे की आशंका को भांप लिया था, लिहाजा जहांगीर के मृत शरीर में घासफंूस भरवाकर अपने शाही कारवां के साथ वह लाहौर रवाना हो गई थी। उस कारवां में किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई कि अब बादशाह सलामत का सिर्फ जिस्म लाहौर लौट रहा था!
इस रास्ते से जहांगीर, अकबर के अलावा शाहजहां और औरंगजेब भी इक्का-दुक्का बार गुजरे हैं। मुगलों का दौर बीत जाने के बाद इस सड़क की उतनी पूछ नहीं रह गई थी और धीरे-धीरे इसका नामोनिशान मिटता चला गया। सत्तर के दशक में शेख अब्दुल्ला ने इसे दोबारा बनाने की कोशिश की लेकिन कोई खास कामयाबी नहीं मिली। उन्होंने ही इसे मुगल रोड नाम भी दिया। बात कुछ आगे बढ़ती कि नब्बे के दशक में जब पूरी कश्मीर घाटी आतंक के आगोश में समाने लगी तो मुगल रोड का भी कोई नामलेवा नहीं रह गया। बफलियाज पुल को भी दहशतगर्दों ने उड़ाकर खाक कर दिया था और इस तरह मुगल रोड पूरी तरह इतिहास के गर्त में समा गई।
बहरहाल, मुगल रोड बनाने का ख्वाब जिंदा रहा और 2005 में इस पर फिर काम शुरू हुआ। आखिरकार 2008 में हल्के वाहनों के लिए इस मार्ग को खोल दिया गया और 2010 से तो हर साल गर्मियों में इस रूट पर कार रैली भी आयोजित की जाती है।
राजौरी से पुंछ होते हुए बफलियाज की तरफ हम मुड़े थे। ठीक यहीं से करीब 84 किलोमीटर लंबी मौजूदा मुगल रोड शुरू होती है और पीरपंजाल की जाने कितनी बुलंदियों के नजारे दिखलाती हुई श्रीनगर से कुछ पहले शोपियां तक बढ़ी चली जाती है। हमारे ड्राइवर ने हमसे कुछ पूछे-सुने बगैर यहां गाड़ी को जैसे लंगर डाल दिया। बफलियाज के बाद से राह की रंगत और मिजाज बदलते से महसूस होने लगे थे। अब सड़कों पर बल ज्यादा पडऩे लगे थे और ऊंचाई भी लगातार बढ़ रही थी। पीर-पंजाल के सीने को चीरकर दौड़ते इस हाइवे के किनारे न बस्तियां थीं- न लोग, न बाज़ार -न गलियां और न शहर, न दुकानें। बस पहाडिय़ा बराबर और ऊंची होती जा रही थीं और हमारे बदन पर एकएक कर चुपचाप कब स्वेटर के बाद जैकेट शॉल चढऩे लगी थीं, इसकी खबर हमें भी नहीं थी।
यों सड़क इतनी सुनसान भी नहीं थी। इक्का-दुक्का गाडिय़ां हमें आर-पार कर रही थीं। किसी मोड़ पर जवानों की पैनी निगाहें चौकसी में थी तो किसी मोड़ के कटते ही हम सीसीटीवी कैमरों में कैद हो रहे थे। जवानों की मुस्तैदी दिल को सहारा दे रही थी, लेकिन फिर अगले कई किलोमीटर यों ही कटते। मोबाइल के सिग्नल भी धीमे पड़ते-पड़ते अब पीर पंजाल की पहाडिय़ों की ओट में कहीं गुम गए थे।
इसी रूट पर मुगल रोड कार रैली होकर हाल फिलहाल गुजरी थी। 2010 से हर साल इस रैली को राज्य सरकार आयोजित करती आ रही है और पीर पंजाल के खूबसूरत नजारों को जज्ब
करते हुए एडवेंचर प्रेमियों का पूरा कारवां इस सड़क को कुछ रोज के लिए ही सही, गुलजार कर गुजर जाता है। हेरिटेज एक्सपर्ट नवीना जाफा कहती हैं-सड़कों का निर्माण अलगाव को तोडऩे का पुख्ता उपाय होता है, और मुगलों ने उस जमाने में इस काम का जिम्मा लिया जब कश्मीर घाटी अपने मौजूदा संदर्भों में अलगाव से नहीं गुजर रही थी। अलबत्ता, भौगोलिक दूरियों को मिटाने, व्यापारी कारवाओं की आवाजाही को आसान बनाने, मुसाफिरों, तीर्थयात्रियों और आम आदमी को पीर पंजाल के आरपार आने-जाने में इस मार्ग ने काफी अहम भूमिका निभायी थी। यह एक तरह से मुगलों का अपनी भौगोलिक सीमाओं को अंकित करने वाला कदम भी था। वे मानती हैं कि हाल के दिनों में राज्य सरकार द्वारा कार रैली जैसे आयोजनों ने इस मार्ग को लोकप्रिय बनाने की अच्छी पहल की है। यह मार्ग उतना असुरक्षित भी नहीं रह गया है।
जम्मू-कश्मीर के पर्यटन निदेशक तलत परवेज ने पिछले दिनों मुगल रोड पर कारवां टूरिज्म शुरू करने की घोषणा भी की थी। हिमालयी पीर पंजाल इलाके को टूरिज्म सर्किट के तौर पर विकसित करने की पहल भी राज्य सरकार ने की है।
बफलियाज से इस पहाड़ी रास्ते की ऊंचाई बढऩे लगी थी। सड़क पर छितराए कंकड़-पत्थर और कहीं-कहीं बड़े भारी चट्टानी पत्थरों को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि यह पहाड़ी रास्ता किन मुसीबतों से होकर कश्मीर पहुंचता है। बीच-बीच में के्रनेंऔर बुलडोजर भी ज्यादा दिखने लगे हैं। कब, किस मोड़ पर पहाड़ रास्ता बंद कर दें, कहा नहीं जा सकता और तब इन मशीनों का ही आसरा होता है। और अब हमें रास्ते के न वो झरने दिखे, न नदी नाले जो मुगल रूट का आकर्षण बढ़ाते हैं। हर तरफ से घेरे पीर पंजाल पहाडिय़ों की बुलंद हस्ती ही हमें हैरान करने के लिए जैसे काफी नहीं थी, सड़क के साथ-साथ अब लंबे-चौड़े चरागाह भी चल रहे थे। इन्हीं मैदानों पर बकरवाल अपने मवेशी चराते हैं और खतरनाक चढ़ाई चढ़ते हुए, दर्रों को लांघते हुए उनके होंठों पर जब-तब तैर आते हैं दुआओं के लफ्ज़। बहरामगला,नूरी छंब,चांदीमारा, डोगरिया और छत्तापानी होते हुए यह सड़क लगभग 11500 फुट पर सर्वाधिक बुलंदी पर पहुंचती है। और एकाएक किटकिटाते दांत, कांपते तन याद दिलाते हैं कि इस जगह तापमान उस गर्मी के मौसम में भी शून्य डिग्री के आसपास ही है। हम पीर की गली पहुंच चुके थे। कश्मीर घाटी में सोलहवीं सदी में इस्लाम की जड़ें सींचने वाले हजरत सैयद अमीर कबीर, जिन्हें पीर हमदान भी पुकारा जाता है, भी इस राह से गुजरे थे और उनका मार्ग होने के चलते ही यह जगह पीर की गली के नाम से मशहूर हुई।
यहीं पीर पंजाल पर वो दर्रा है जिसे पार करने के क्रम में जाने कितने ही लोग और कितने ही मवेशी अपनी जान गंवा चुके हैं।
हमारे आगे-पीछे चल रही तमाम गाडिय़ां यहां रुकीं। पुंछ से सवारियां भरकर लाए वाहनों में से लोकल कश्मीरी लोइयों में लिपटे अब बाहर निकल आए थे। पीर की गली उनके लिए इबादत की जगह थी, और हमारे भी लबों पर दुआएं तैर आयीं। इबादत के लिए हमारे भी पैर खुद-ब-खुद पीर बाबा की मज़ार की तरफ बढ़ चले थे। लोकल यात्रियों के दल में सिर्फ एक औरत थी और एक अनजाना-सा नाता हम दोनों के बीच उस एक पल में गहराया था। मुगल रोड ने पुंछ को टूरिस्टी नक्शे पर ला खड़ा किया है। वाकई पुंछ, राजौरी जैसे जिलों के लिए यह रास्ता वरदान से कम नहीं है। कभी पुंछ से श्रीनगर तक की दूरी पारंपरिक रूट, यानी बनिहाल दर्रे से होते हुए लगभग 588 किलोमीटर हुआ करती थी। वहीं अब मुगल रोड के रास्ते घटकर सिर्फ 126 किलोमीटर रह गई है। यानी अब एक दिन में ही आना-जाना मुमकिन है।