उत्तर प्रदेश
बृजेश शुक्ल
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विपक्ष का सफाया हो गया। वैसे तो समाजवादी पार्टी गठबंधन को इस चुनाव मंे भारी क्षति हुई है, उनकी सत्ता गयी। सीटें भी 231 से घटकर 47 रह गयीं। लेकिन उससे भी बड़ा झटका बहुजन समाज पार्टी को लगा है, जिसे यह यकीन हो चला था कि सत्ता उसके हाथ आ रही है। मतदान के बाद बसपा के रणनीतिकार यह योजना बनाने में जुटे थे कि शासन कैसे चलाया जायेगा, क्या-क्या काम करेंगे। लेकिन जब परिणाम आने शुरू हुए, तब पता चला कि मतदाताओं ने उन्हें 27 साल पहले वाली उस स्थिति में पहुंचा दिया है, जहां से विधानसभा में उनकी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत हुई थी। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि अब बसपा की राजनीति का क्या होगा? अखिलेश यादव अपनी पार्टी को इस हार से उबार पायेंगे या नहीं, अपने पूरे राजनीतिक सफर में सबसे दयनीय प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस का क्या होगा? विपक्ष में कौन ऐसा होगा, जो अपने को इस हार से उबार ले जायेगा।
समाजवादी पार्टी का नेतृत्व युवा अखिलेश यादव के हाथ में हैं, उनके लिए अभी लंबा सफर है। वह अपने को इसी तरह तैयार भी कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के एक नेता कहते हैं कि यह पहली बार नहीं है, जब सपा को इतना बड़ा झटका लगा हो। 1991 में सपा 32 सीटों पर सिमट गई थी। लेकिन तब मुलायम सिंह का नेतृत्व था। उन्होंने राख में मिली पार्टी को शिखर तक पहुंचा दिया था, क्या अखिलेश ऐसा कर पायेंगे। अखिलेश को यदि पार्टी को फिर से खड़ा करना है, उसे शिखर तक ले जाना है, तो उन्हें सड़क पर उतरना होगा। राजनीति का प्रथम दर्शन संघर्ष है। सपा ने फिलहाल योगी सरकार के काम देखने का निर्णय किया है। यह उचित है। लेकिन वह समझ रहे हैं कि आने वाला रास्ता बहुत कठिन है। पार्टी को खड़ा करने के लिए उन्हें मैदान में उतरना होगा।
सपा को इस चुनाव में सर्वाधिक झटका लगा है, उसके कुल 19 विधायक जीते हैं। 1989 में पहली बार बसपा को 11 सीटें मिली थीं। इसके बाद से बसपा ने राजनीति में छलांग लगाना शुरू किया। सीटें बढ़ती गयीं। भाजपा, सपा और कांग्रेस सभी से इसका गठजोड़ हुआ। 2007 में यह सत्ता में आ गयी। लेकिन 2009 के बाद इसके पतन की गाथा शुरू हुई। 2009 के चुनाव में बसपा की हार के बाद पार्टी सुप्रीमो मायावती ने नये ढंग से जातीय समीकरण बिछाये। वह यह भूल गयीं कि सोशल इंजीनियरिंग तब कारगर होती है, जब मतदाताओं को यह लगे कि पार्टी उन्हें उसका हक दे रही है। 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा बुरी तरह हारी और तब मायावती ने यह कह कर इस हार को खारिज कर दिया कि मतदाताओं को भ्रमित किया गया है। उन्हें अपनी कमी नहीं दिख रही थी। 2014 में वह और भी बुरी तरह हारी और लोकसभा चुनाव में उन्हें जीरो मिला। इसके बावजूद वह यह समझने को तैयार नहीं हुईं कि जनता उनसे नाराज है। 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा 80 से घटकर 19 पर सिमट गयी। अब उन्हें ईवीएम में खराबी नजर आती है। मायावती ने कभी संघर्ष की राजनीति नहीं की। जब उनकी सरकार होती है, तब लखनऊ में रहती हैं और जब नहीं होती है तो दिल्ली में। बड़े से बड़े मुद्दों पर वह बयान देकर काम चलाती रहती हैं। अपनी हार में भी उन्हें दूसरे का दोष दिखता है। वास्तव में दलित आंदोलन से उपजी पार्टी पतन की ओर है। अब यह उभर पायेगी, इसके हालात कम ही नजर आते हैं। कांशीराम उन्हें जो राजनीतिक विरासत सौंप गये थे, उसमें वह कुछ जोड़ नहीं रही। इस पार्टी के बिखरने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ है, जिसे अब मजबूती से खड़ा करना आसान नहीं है।
सबसे बुरी स्िथति कांग्रेस की है। सितंबर में राहुल गांधी ने पूरे प्रदेश में यात्रा की थी। कर्ज माफी के वादे किये थे, बिजली का बिल आधे करने का भी वादा किया था। चुनावी प्रबंधन के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले प्रशांत किशोर यानी पीके कांग्रेस के चुनावी प्रबंधन के लिए लाये गये थे। कांग्रेस से उत्साह से लबरेज थी कि जल्द ही उसके हाथ उत्तर प्रदेश की सत्ता आने वाली है। फिर समाजवादी पार्टी से उसका गठजोड़ हो गया। तब तो कांग्रेस को यह लगा कि सत्ता उसके हाथ आ ही गई है। लेकिन कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज चुनाव हार गये। अब कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में कोई फार्मूला नहीं दिख रहा है, उससे वह उबर सके। कार्यकर्ताओं में संघर्ष करने की क्षमता नहीं है। सड़क की राजनीति करने की आदतें छूट चुकी हैं, लेकिन इसके बावजूद विपक्ष के लिए उत्तर प्रदेश खुला मैदान है, जो जनता के हितों के लिए संघर्ष कर लेगा, वहीं आगे बढ़ जायेगा।