उत्तराखंड
शंकर सिंह भाटिया
भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के अपने अभियान में उत्तराखंड में एक कदम आगे बढ़ी है। इतना ही नहीं उसने अन्य दलों को किनारे लगा दिया है। अपने दम पर जीतकर आने वाले निर्दलीयों पर भी भाजपा का शिकंजा कस गया है। हर बार चुनाव में भाजपा के बराबर मुकाबले में रहने वाली कांग्रेस का इतना पिछड़ जाना इस पार्टी के वजूद पर ही सवाल उठाने लगा है।
विधानसभा चुनाव से पहले माना जा रहा था कि भले ही कांग्रेस अन्य राज्यों में सिमट रही हो, लेकिन उत्तराखंड में वह उस तरह नहीं हारेगी, जैसे अन्य राज्यों में हारी। माना जा रहा था कि वह मजबूती से खड़ी दिखाई देगी। चुनावी नतीजों ने कांग्रेस को हिलाकर रख दिया है। पिछली बार तराई में पिछड़ने की वजह से खुद मुख्यमंत्री पहाड़ की सुरक्षित सीट छोड़कर हरिद्वार की हरिद्वार ग्रामीण और उधम सिंह नगर की किच्छा सीट से मैदान में उतरे थे। दोनों सीटों से वह बुरी तरह चुनाव हारे। सेनापति की यह दोहरी हार पूरी पार्टी को ले डूबी।
70 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस 11 सीटों पर सिमट गयी। उत्तराखंड का चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम हरीश रावत हो गया था। मोदी के सामने कांग्रेस टिक नहीं पायी। हमेशा उत्तराखंड के सदन में मौजूद रहने वाली बसपा और क्षेत्रीय दल उक्रांद के वजूद पर भी मोदी लहर ने संकट खड़ा कर दिया है।
इन हालात में सवाल पूछा जा रहा है कि क्या उत्तराखंड में कांग्रेस फिर से खड़ी हो पाएगी? यदि खड़ी हो पाएगी तो कितना समय लगेगा? उत्तराखंड में कांग्रेस के सामने अब नेतृत्व का संकट खड़ा है। हरीश रावत का व्यक्तित्व पूरे उत्तराखंड को नेतृत्व देता है। इस चुनाव के बाद वह व्यक्तित्व भी पूरी तरह से बिखर गया है। हरीश रावत के बयानों में यह निराशा साफ झलकती है। कांग्रेस के जीतकर आये मौजूदा विधायकों और पार्टी संगठन में कोई भी इस कद का नेता नहीं है, जिसकी पूरे राज्य, गढ़वाल, कुमाउं, तराई में सभी जगह सर्व स्वीकार्यता हो। हालांकि हरीश रावत का अति नेतृत्व भी पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुआ। उन्होंने पार्टी में इस कदर अपनी पकड़ मजबूत बना ली कि उनके विपरीत विजय बहुगुणा धड़ा खुद को असहाय महसूस करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कई खासकर गढ़वाल क्षेत्र के प्रभावशाली नेता पार्टी से बाहर हो भाजपा में शामिल हो गये, जिससे कांग्रेस को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा।
अब अगर कांग्रेस नेता प्रतिपक्ष के तौर पर इंदिरा हृदयेश आती हैं तो उनकी अधिक उम्र और हल्द्वानी तक सिमटी उनकी सक्रियता उन्हें राज्यव्यापी आयाम देने के मार्ग में बड़ी बाधा है। कांग्रेस संगठन के अंदर इस समय जमकर तू-तू-मैं-मैं चल रही है। कांग्रेस संगठन तो इस बड़ी हार के लिए खुद को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं है। अब सवाल उठ रहा है कि नया कांग्रेस अध्यक्ष कौन बनेगा? क्या नये अध्यक्ष में इतनी क्षमता होगी कि वह कांग्रेस को इस कमरतोड़ हार से बाहर निकालने में सफल हो पाएगा? फिलहाल कांग्रेस के सामने आगे अंधेरा ही अंधेरा है। इसके बावजूद इतना तो कहना पड़ेगा कि कांग्रेस अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। वह फिर उठकर आ सकती है, क्योंकि इस बड़ी हार के बावजूद कांग्रेस का वोट प्रतिशत कम नहीं हुआ है। वह पिछली बार 34 प्रतिशत वोट पाकर सत्ता में थी, भाजपा करीब 33 प्रतिशत वोट पाकर पिछड़ गई थी, इस बार कांग्रेस 33 प्रतिशत वोट पाने में सफल रही। यानी पिछली बार से सिर्फ एक फीसदी
कम। भाजपा 44 प्रतिशत वोट पाकर 57 सीट जीत गई।
तराई के बल पर उत्तराखंड में लगातार तीसरी ताकत के रूप में खड़ी बसपा को भाजपा की लहर ने पूरी तरह साफ कर दिया। पहली बार उत्तराखंड विधानसभा में बसपा का विधायक नहीं होगा। अन्यथा पहली विधानसभा में सात, दूसरी में आठ और तीसरी में तीन विधायक जीतकर बसपा सदन में अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रही है। इस बार बसपा का वोट प्रतिशत भी बहुत नीचे आ गया है। बसपा हर बार 11 से लेकर 13 प्रतिशत वोट पाकर उत्तराखंड में अपनी मजबूत मौजूदगी बनाए हुए थी। इस बार उसका वोट प्रतिशत करीब पांच प्रतिशत पर आकर अटक गया है।
भाजपा की इस लहर का सबसे अधिक आघात क्षेत्रीय दल उक्रांद को लगा है। उक्रांद भी पिछली तीन विधानसभाओं में अपनी मौजूदगी बनाए हुए था, इस बार वह भी शून्य हो गया है। दरअसल, 1990 तक उत्तराखंड में भाजपा कहीं मौजूद नहीं थी। कांग्रेस के मुकाबले उक्रांद ही यहां राजनीतिक ताकत था। 1991 के राम मंदिर आंदोलन ने भाजपा को उत्तराखंड में खड़ा होने का आधार दिया। भाजपा ने यह आधार उक्रांद से झपटकर लिया था। 1996 के यूपी चुनाव का बहिष्कार करना उक्रांद को भारी पड़ा। इस चुनाव में भाजपा ने उक्रांद की पूरी राजनीतिक विरासत को अपने में समेट लिया। 2017 आते-आते उक्रांद के वजूद का संकट खड़ा हो गया। उक्रांद पहली विधानसभा में चार, दूसरी में तीन और तीसरी में एक विधायक के साथ मौजूद था। अब उसका एक भी विधायक नहीं होगा। उसका मत प्रतिशत एक प्रतिशत से नीचे चला गया है। उत्तराखंड आंदोलन के इस पुरोधा दल के सामने अपने वजूद को बचाए रखने का संकट खड़ा हो गया है।
जहां तक निर्दलीयों का सवाल है, पिछले तीन विधानसभा चुनाव में हर बार तीन-तीन निर्दलीय जीतकर सदन में पहुंचे हैं, इस बार मोदी लहर में दो निर्दलीय ही सदन की चौखट तक पहुंच पाए हैं। लेकिन भाजपा को प्रचंड बहुमत मिलने से उनकी ज्यादा पूछ होगी इस पर संदेह है। अब देखना यह होगा कि वह खुद को किस तरह से और किसके नेतृत्व में संगठित करती है।