अरुण नैथानी
पर्यावरण चेतना व भारत के परंपरागत जल स्रोतों के संरक्षण अभियान से जुड़े प्रख्यात पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। एक गहरी नदी सरीखे निरंतर जनचेतना अभियान से जुड़े रहने वाले अनुपम यूं तो सदैव सुर्खियों में रहे हैं लेकिन हालिया चर्चा उनको प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार दिये जाने के कारण हो रही है। अनेक लोकप्रिय पुस्तकों के रचयिता अनुपम सही मायनों में गांधीवादी और जलयोद्धा हैं। उनका मानना है कि अपने परंपरागत जल स्रोतों के संरक्षण से ही हम 21वीं सदी में पेयजल के संकट से उबर सकते हैं। वे जल की पर्याप्त उपलब्धता को मानवता के लिए बड़ी चुनौती मानते हैं, क्योंकि हमारी सरकारें इस दिशा में गंभीर नहीं हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि आने वाले समय में बड़े युद्ध सिर्फ पानी के लिए होंगे, यदि हम समय रहते न चेते।
वर्ष 1948 मध्यप्रदेश में जन्मे अनुपम मिश्र का पालन-पोषण प्रख्यात साहित्यकार भवानी प्रसाद मिश्र के साहित्य संस्कारों के बीच हुआ। बचपन से ही वे समाज व पर्यावरण से जुड़े मुद्दों के प्रति खासे गंभीर रहे हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव रहने के अलावा वह प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी मार्ग के संपादक भी रहे हैं। वे सेंटर फॉर इनवायरनमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्य भी रहे हैं। उत्तराखंड के प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट के साथ बहुचर्चित चिपको आंदोलन में भी सक्रिय रहे हैं। अनुपम मिश्र मुख्यत: परंपरागत जल संसाधनों के संरक्षण, रखरखाव, तालाबों के जल-प्रबंधन तथा वर्षा जल-संचयन अभियान के सचेतक रहे हैं। उनकी स्पष्ट धारणा रही है कि जल संरक्षण में आम आदमी की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए। वे मानते हैं कि हमारे पूर्वज बेहतर जल-इंजीनियर रहे हैं।
जल संसाधनों के संरक्षण व पर्यावरण चेतना के लिए उनके योगदान के लिए उन्हें 1996 में इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। वे देश के विभिन्न राज्यों में जल संरक्षण से जुड़े अभियानों में सक्रिय भागीदारी निभाते रहे हैं, खासकर राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व मध्यप्रदेश को उन्होंने अपनी कार्यस्थली बनाया। यहां उन्होंने कुओं, बावडिय़ों, तलाबों व बरसाती नदियों के संरक्षण की मुहिम को संबल प्रदान किया। इन्हीं विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकें यथा ‘आज भी खरे हैं तालाबÓ व ‘राजस्थान की रजत बूंदेंÓ जल प्रबंधन के परंपरागत तौर-तरीकों की विस्तृत व्याख्या करती हैं। इन पुस्तकों को एक अनूठे मापदंड के तौर पर देखा जाता है।
अनुपम मानते हैं कि वर्ष 2050 में जब भारत की जनसंख्या डेढ़ अरब का आंकड़ा पार चुकी होगी तो देश के सामने जल-संकट एक बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होगा। लेकिन देश के नीति नियंता इस मुद्दे पर गंभीर नज़र नहीं आते। उनका स्पष्ट मानना है कि पानी का कोई विकल्प नहीं हो सकता, इसकी पर्याप्त उपलब्धता के लिए व्यापक स्तर पर मुहिम चलाने की आवश्यकता है। ‘राजस्थान की रजत बूंदेंÓ पुस्तक में वे जल संरक्षण के उन परंपरागत तौर-तरीकों पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं जिनके जरिये इस रेगिस्तानी इलाके में हमारे पूर्वजों ने जल संरक्षण सफलतापूर्वक किया। लोगों ने असाध्य श्रम व सामुदायिक पहल के चलते मरु भूमि में जल उपलब्ध कराया। लेकिन आज स्थानीय प्रशासन की उदासीनता व अज्ञानता के चलते परंपरागत स्रोत सूख रहे हैं और सरकार हर आदमी को आधुनिक तौर-तरीकों के बावजूद पेयजल उपलब्ध नहीं करा पा रही है, यह आने वाले जल-संकट की आहट है।
वे परंपरागत वर्षा जल-संरक्षण की पुरजोर वकालत करते हैं, ताकि वर्षपर्यंत पेयजल की उपलब्धता बनी रहे। वे इसके लिए गैर-सरकारी संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं, विकास एजेंसियों तथा पर्यावरण संरक्षण से जुड़े समूहों की सक्रिय भागीदारी का आह्वान करते हैं। उनका मानना है कि स्वदेशी तकनीकों के बलबूते पर न केवल हम पेयजल जुटा सकते हैं बल्कि सिंचाई के साधन भी विकसित कर सकते हैं। वे कुओं को पेयजल व सिंचाई जल का महत्वपूर्ण स्रोत मानते हैं। इन कुओं की सफाई व पुनर्जीवन पर वह विशेष बल देते हैं। इसके साथ ही वे भूमि की जलसंग्रहण की परंपरागत तकनीक को बढ़ावा देने की बात करते हैं। वे राजनीतिक उदासीनता को दुखद बताते हुए कहते हैं कि इसके चलते देश में जल संरक्षण चेतना का समुचित विकास नहीं हो पाया।
उनकी स्पष्ट धारणा है कि जल संरक्षण प्रकृति व संस्कृति की रक्षा की अनिवार्य शर्त है। देश में भौगोलिक विषमता के चलते कुछ इलाकों में अकूत जल-संपदा विद्यमान है तो कुछ इलाकों में निपट सूखा है। इस असंतुलन को दूर करने की सख्त जरूरत है। इसमें सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति व जन समुदायों की सक्रिय भागीदारी की जरूरत है। उनके इस अभियान को सार्थक बनाने वाले तरुण भारत संघ के योगदान की दुनियाभर में चर्चा होती है जिसे इस योगदान के लिए ‘मैगसेसे पुरस्कारÓ से भी सम्मानित किया गया है।
उल्लेखनीय पहलू यह है कि अनुपम जल संरक्षण की स्वदेशी तकनीकों के पक्षधर हैं। वे मानते हैं कि हमारे पुरखे सही मायनों में जल इंजीनियर थे लेकिन हम उनकी तकनीकों व अपनी विरासत का संरक्षण नहीं कर पाये। आज परंपरागत जल-स्रोत दम तोड़ रहे हैंं। आज वर्षा जल प्रबंधन-संरक्षण वक्त की दरकार है। उनकी मान्यता है कि पश्चिम जीवनशैली में पानी के दुरुपयोग के संस्कार समाहित हैं जिससे बचकर हम जल की बचत कर सकते हैं।